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मनस्
प्रद्युम्न-प्रबोधचन्द्रोदय
४२१ हो जाता है । इस व्रत में पूजा के अनन्तर एकभक्त (एक जाती है, जो बिल्कुल निष्क्रिय रहता है और उसे माँ (बिल्ली) बार भोजन) किया जाता है।
अपने मुख में दबाकर चलती है (वैडाली धृति) । एतदर्थ प्रद्युम्न-महाभारत के नारायणीयोपाख्यान में वर्णित चतु- इन्हें 'मर्कट-न्याय' तथा 'मार्जार-न्याय' के हास्यास्पद नामों
यूं हसिद्धान्त के अन्तर्गत वासुदेव से संकर्षण, संकर्षण से से भी लोग पुकारते हैं। दोनों के प्रति उपास्य देव की प्रद्युम्न, प्रद्युम्न से अनिरुद्ध तथा अनिरुद्ध से ब्रह्मा की दृष्टि क्रमशः 'सहेतुक कृपा' तथा 'निर्हेतुक कृपा' को रहती उत्पत्ति मानी गयी है । सांख्यदर्शन में संकर्षण तथा अन्य है। इसकी तुलना पाश्चात्य धार्मिक विचारकों की 'सहतीन का निम्नाङ्कित तत्त्वों से तादात्म्य किया गया है : योगी कृपा' तथा 'स्वतः अनिवार्य कृपा' के साथ की जा वासुदेव : मूलतत्त्व (पर ब्रह्म)
सकती है। संकर्षण : महत्तत्त्व प्रकृति
जो व्यक्ति प्रपत्तिमार्ग ग्रहण कर लेता है उसे 'प्रपन्न' प्रद्युम्न :
अथवा शरणागत कहते हैं। प्रपत्ति मार्ग के उपदेशकों अनिरुद्ध : अहङ्कार
का कहना है कि ईश्वर पर निरन्तर एकतान ध्यान केन्द्रित ब्रह्मा: भूतों के रचयिता।
करना ( जिसकी भक्तिमार्ग में आवश्यकता है और जो वासुदेव कृष्ण का नाम है, संकर्षण अथवा बलराम मुक्ति का साधन है) मनुष्य की सर्वोपरि शान्त वृत्ति उनके भाई हैं, प्रद्यम्न उनके पुत्र तथा अनिरुद्ध उनके और विवेक की तीव्रता से ही सम्भव है, जिसमें अधिकांश पौत्रों में से एक हैं। इनका एक सामूहिक पुञ्ज बना।
मनुष्य खरे नहीं उतर सकते । इसलिए ईश्वर ने अपनी लिया गया और उसका 'व्यूह' नाम रख दिया गया है।
करुणाशीलता के कारण प्रपत्ति का मार्ग प्रकट किया है, दे० 'व्यूह' ।
जिसमें बिना किसी विशेष प्रयास के आत्मसमर्पण किया प्रपञ्चमिथ्यात्वानुमानखण्डनटीका-यह माध्व वैष्णव जय- जा सकता है। इसमें किसी जाति, वर्ण अथवा वंश की तीर्थाचार्य द्वारा विरचित द्वैतवादी तार्किक ग्रन्थ है। अपेक्षा नहीं है । यद्यपि यह मार्ग दक्षिण भारत में प्रचइसका रचनाकाल पन्द्रहवीं शताब्दी है।
लित रहा है, किन्तु इसका प्रचार परवर्ती काल में उत्तर प्रपजचमिथ्यावादखण्डन-मध्वाचार्य द्वारा विरचित एक भारतीय गङ्गा-यमुना के केन्द्रस्थल में भी हआ तथा द्वैतवादी वेदान्त ग्रन्थ ।
इसके अवलम्ब से अनेकों पवित्र आत्माओं को ईश्वर का प्रपञ्चसारतन्त्र-इस नाम के दो ग्रन्थ हैं, प्रथम शङ्करा- दिव्य अनुग्रह प्राप्त हुआ (यथा चरणदासी संत )। चार्यकृत तथा दूसरा पद्मपादाचार्य कृत । ये अद्वैत वेदान्त इस विचार का और भी विकसित रूप 'आचार्याभिमान' के आधार पर उपासना का प्रतिपादन करते हैं।
है । आचार्य मनुष्यों को ईश्वर का मार्ग प्रदर्शित करता है प्रपत्तिमार्ग-भक्तिमार्ग का एक विकसित रूप, जिसका
अतः पहले उसी के सम्मुख आत्मसमर्पण की आवश्यकता प्रादुर्भाव दक्षिण भारत में १३वीं शताब्दी में हआ । देवता
होती है। के प्रति क्रियात्मक प्रेम अथवा तल्लीनता को भक्ति कहते प्रपन्न-जिस व्यक्ति ने प्रपत्तिमार्ग ग्रहण कर लिया हो, हैं, जबकि प्रपत्ति निष्क्रिय सम्पूर्ण आत्मसमर्पण है। उसे प्रपन्न कहते हैं । दे० 'प्रपत्तिमार्ग' ! दक्षिण भारत में रामानजीय वैष्णव विचारधारा की दो प्रपादान-चैत्र शुक्ल प्रतिपदा को इस व्रत का प्रारम्भ शाखाएँ हैं : (१) बड़वकलइ (काजीवरम के उत्तर का होता है । सभी जनों को गर्मियों के चारों मासों में जल भाग )। यह शाखा भक्ति को अधिक प्रश्रय देती है।
का दान (प्याऊ लगाना) करना चाहिए। इससे पितगण (२) तेन्कलइ (काजीवरम् के दक्षिण का भाग ), सन्तुष्ट हात ह । यह शाखा प्रपत्ति पर अधिक बल देती है। प्रपोथ-पञ्चविंश ब्राह्मण (८.४.१) में उल्लिखित एक बडक्कलइ शाखा के सदस्यों की तुलना एक कपि- पौधे का नाम, जो सोम के स्थान पर व्यवहृत होता था। शिश से की जाती है जो अपनी माँ को पकड़े रहता है प्रबोधचन्द्रोदय-संस्कृत साहित्य का आध्यात्मिक नाटक ।
और वह उसे लेकर कूदती रहती है (वानरी धति)। तेन- नवीं-दसवीं शताब्दी तक वेदान्तीय ज्ञानचर्चा विद्वानों कलइ शाखा के सदस्यों की तुलना मार्जारशिशु से की तक ही सीमित थी। ग्यारहवीं शताब्दी में नाटक,
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