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प्रणव उपनिषद्-प्रत्यक्ष
रामतापनीय उपनिषद् में 'ओम्' के अर्थ और महत्व का विशद विवेचन पाया जाता है।
प्रणव उपनिषद् - एक परवर्ती उपनिषद्, जिसमें प्रणव का निरूपण और माहात्म्य पाया जाता है । प्रणवदर्पण - तृतीय श्रीनिवास (अठारहवीं शती पूर्वार्ध में) द्वारा रचित यह ग्रन्थ विशिष्टाद्वैत मत का समर्थन करता है ।
प्रणववाद- - इस सिद्धान्त के अनुसार शब्द अथवा नाद को ही ब्रह्म या अन्तिम तत्व मानकर उसकी उपासना की जाती है। किसी न किसी रूप में सभी योगसाधना के अभ्यासी शब्द की उपासना करते हैं। यह प्रणाली अति प्राचीन है। प्रणव के रूप में इसका मूल वेदमन्त्रों में वर्तमान है । इसका प्राचीन नाम 'स्फोटवाद' भी है । छठी शताब्दी के लगभग सिद्धयोगी भर्तृहरि ने प्रसिद्ध ग्रन्थ वाक्यपदीय में 'शब्दाद्वैतवाद' का प्रवर्तन किया था । नाथ सम्प्रदाय में भी शब्द की उपासना पर जोर दिया गया है । चरनदासी पन्च में भी शब्द का प्राधान्य है। आधुनिक संतमार्गी राधास्वामी सत्संगी लोग शब्द को ही उपासना करते हैं। प्रणवोपासना-दे० 'प्रणववाद' |
प्रणामी सम्प्रदाय - इसका शुद्ध नाम 'परिणामी सम्प्रदाय' है । इसके प्रवर्तक महात्मा प्राणनाथजी परिणामवादी वेदान्ती थे, जो विशेष कर पन्ना (मध्य प्रदेश) में रहते थे । महाराज छत्रसाल इन्हें अपना गुरु मानते थे। ये अपने को मुसल मानों का मेहेंदी, ईसाइयों का मसीहा और हिन्दुओं का कल्कि अवतार कहते थे । इन्होंने मुसलमानों से शास्त्रार्थ भी किये थे। सर्वधर्म समन्वय इनका उद्देश्य था इनका मत राधाकृष्णोपासक निम्बार्कीय वैष्णवों से मिलताजुलता था। ये गोलोकवासी भगवान् कृष्ण के सख्यभाव की उपासना का उपदेश देते थे । प्राणनाथजी ने उपदेशात्मक ग्रन्थ और सिद्धान्तात्मक वाणियाँ फारसी मिश्रित सपुक्कड़ी भाषा में रची हैं। इनकी शिष्य परम्परा का भी अच्छा साहित्य है । इनके अनुगामी वैष्णव गुजरात, राजस्थान और बुन्देलखण्ड में अधिक पाये जाते हैं । दे० 'प्राणनाथ' | प्रतिज्ञावादार्थ - श्रीवैष्णव अनन्ताचार्य द्वारा विरचित १६वीं
शताब्दी का एक ग्रन्थ । प्रतिप्रस्थाता - ब्राह्मण ग्रन्थों में यज्ञ विधियों, पुरोहितों की संख्या तथा प्रकार में बहुत विविधता दिखाई पड़ती है ।
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विविध यज्ञों के लिए विविध नाम व गुणों वाले पुरोहित आवश्यक होते थे । जैसे चातुर्मास्य यज्ञ के लिए 'प्रतिप्रस्थाता' नामक पुरोहित की आवश्यकता होती थी । इसका शाब्दिक अर्थ है ' दुबारा स्थापना करने वाला ।' प्रतिष्ठा - ( १ ) विशेष प्रकार से स्थापना । मन्दिरों में मूर्तियों के पधराने को प्रतिष्ठा कहा जाता है । देवप्रतिष्ठा के अन्तर्गत प्राणप्रतिष्ठा का भी अनुष्ठान होता है ।
(२) अथर्ववेद (६.३२, ३८.८, २१ शाखा० आ० १२.१४) के एक परिच्छेद में इस शब्द का प्रयोग धर्म के किसी विशेष अर्थ में हुआ है। सम्भवतः इसका 'मन्दिर का गर्भगृह' अभिप्राय है । गृह अथवा वास अर्थ भी असंगत नहीं प्रतीत होता है।
प्रतिष्ठा विधि - देवप्रतिष्ठा के समय, पर्व और आपत्काल में नियमित रूप से मूर्तियों का अभिषेक करना मन्दिरों में आज भी प्रचलित है। इसके नियम अनेक पद्धतियों में लिखे गये हैं जिन्हें पूजाविधि अथवा प्रतिष्ठाविधि कहते हैं। अभिषेक विशेषकर दुग्ध अथवा भिन्न-भिन्न प्रकार के जल, मधु, गव्य द्रव्य, दीमक के बिल की मिट्टी आदि से भी होता है ।
प्रतिसर्ग-पुराणों के अन्तर्गत उनके पक्ष लक्षण, विषय वा प्रक रण माने गये हैं: (१) सर्ग (सृष्टि) (२) प्रतिसर्ग अर्थात् सृष्टि का विस्तार लय और फिर से सृष्टि (३) सृष्टि की आदि वंशावली ( ४ ) मन्वन्तर ( ५ ) वंशानुचरित । प्रतिसर्ग का शाब्दिक अर्थ है 'पुनः सृष्टि' अर्थात् विश्वसृष्टि के अन्तर्गत खण्डशः सृष्टि और प्रलय की परम्परा । प्रतिहर्ता - सोलह ऋत्विजों की तालिका में उत उद्गाता का सहायक पुरोहित । इसका उल्लेख कई संहिताओं तथा ब्राह्मणों में हुआ है किन्तु ऋग्वेद में यह शब्द नहीं पाया जाता । इसका कारण यह है कि तब तक यज्ञों का अधिक विस्तार नहीं हुआ था ।
प्रतिहारसूत्र - ऋक् मन्त्र को साम में परिणत करने की विधि के सम्बन्ध में सामवेद के बहुत से सूत्रग्रन्थ हैं । इनमें से एक का नाम पञ्चविधिसूत्र तथा दूसरे का प्रति हारसूत्र हैं । ये ग्रन्थ कात्यायन द्वारा रचित कहलाते हैं । प्रत्यक्ष — इन्द्रियों की सहायता से प्राप्त
ज्ञान (प्रति + अक्ष आँखों (इन्द्रियों) के सामने) न्यायदर्शन में चार प्रमाणों के अन्तर्गत इसको प्रथम प्रमाण माना है । चावकि दर्शन में
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