________________
प्रकरणपञ्चिका-प्रकृतिपुरुषव्रत
४१७
प्रकरणपञ्चिका-प्रभाकर के शिष्य शालिकनाथ (७०० ई०) वेदान्तसिद्धान्तमुक्तावली वेदान्त का सुप्रसिद्ध प्रमाण द्वारा विरचित यह ग्रन्थ प्रभाकर की मीमांसाप्रणाली का ग्रन्थ है। इसकी विवेचनशैली बहुत युक्तियुक्त और अभिनव वर्णन प्रस्तुत करता है ।
प्राञ्जल है। इसमें गद्य में विचार करके पद्य में सिद्धान्तप्रकरिता-यजुर्वेद में उद्धृत पुरुषमेध का एक बलिजीव ।। निरूपण किया गया है । इसके ऊपर अप्पय्य दीक्षित की इसका ठीक अर्थ अनिश्चित है । तैत्तिरीय ब्राह्मण में सायण सिद्धान्तदीपिका' नाम की एक वृत्ति है। ने इसका अर्थ 'मित्रों में फूट उत्पन्न कर देने वाला' प्रकाशानुभव-दे० 'प्रकाशात्ममुनि' । लगाया है, किन्तु मैकडॉनल तथा कीथ के मतानुसार प्रकृति-सांख्य शास्त्र में चार प्रकार से पदार्थों का निरूपण इसका अर्थ 'छिड़कने वाला' अथवा 'छानने वाला' यन्त्र किया गया है : (१) केवल प्रकृति (२) केवल विकृति, है, जिसका उपयोग यज्ञों में होता था।
(३) प्रकृति-विकृति उभयरूप और (४) प्रकृति-विकृति दोनों प्रकाश-आचार्य वल्लभ के पुष्टिमार्गीय तीन संस्कृत ग्रन्थों
से भिन्न । मूल प्रकृति केवल प्रकृति है, किसी की विकृति में एक तत्त्वदीपनिबन्ध है, जो उनके सिद्धान्तों का
नहीं है। महत् से आरम्भ होनेवाले सात तत्त्व प्रकृति और संक्षिप्त विवरण प्रस्तुत करता है। इस ग्रन्थ के साथ
विकृति दोनों हैं । ज्ञानेन्द्रिय, कर्मेन्द्रिय, पांच महाभूत और 'प्रकाश' नामक प्राञ्जल गद्य भाग एवं सत्रह संक्षिप्त मन ये सोलह केवल विकृति हैं। पुरुष न तो प्रकृति है, न रचनाएँ सम्मिलित हैं।
विकृति है। प्रकाशात्ममुनि-बारहवीं शताब्दी के मध्य में आचार्य
__महदादि सम्पूर्ण कार्यों का जो मूल है वह मूल प्रकृति रामानुज का आविर्भाव हुआ था और उन्होंने शाङ्कर मत
है, उसके प्रधान, माया, अव्यक्त आदि नामान्तर हैं। का बड़े कठोर शब्दों में खण्डन किया। उस समय शाङ्कर
प्रकृति का और कोई कारण नहीं है इसी लिए इसको मूल मत को पुष्ट करने की चेष्टा प्रकाशात्ममुनि ने की थी।
प्रकृति कहा जाता है। इन्होंने पद्मपादाचार्यकृत पञ्चपादिका पर पञ्चपादिका- प्रकृति और पुरुष दोनों को सांख्य में अनादि माना विवरण नामक टीका की रचना की। अद्वैत जगत् में जाता है। इसी प्रकृति से सम्पूर्ण जगत् का विकास हुआ यह टीका बहुत मान्य है । बाद के आचार्यों ने प्रकाशात्म- है। प्रकृति की 'सत्-ता' (सदा होना) कारण (मूल) है; मुनि के वाक्य प्रमाण के रूप में उद्धृत किये हैं। परन्तु इससे कार्य जगत् उद्भूत हुआ है। इस सिद्धान्त को इन्होंने अपना परिचय कहीं नहीं दिया। ऐसा मालूम __'सत्कार्यवाद' कहते हैं । एक ही मूल प्रकृति से विश्व के होता है कि ये दसवीं शताब्दी के बाद और तेरहवीं विविध पदार्थ उत्पन्न होते हैं । इसका कारण है प्रकृति में शताब्दी के पहले हुए थे । इनका अन्य नाम प्रकाशानुभव तीन गुणों-सत्त्व, रज, तम का होना । विविध अनुपातों में भी था और इनके गुरु का नाम अनन्यानुभव था, ऐसा । इन्हीं के सम्मिश्रण से विभिन्न वस्तुएँ उत्पन्न होती हैं। इनके ग्रन्थ से पता चलता है।
विकासप्रक्रिया उस समय प्रारम्भ होती है जब प्रकृति का प्रकाशात्मयति–दे० 'प्रकाशात्ममुनि'।
पुरुष से सम्बन्ध होता है। किन्तु इस प्रक्रिया में ईश्वर प्रकाशात्मा-एक प्रसिद्ध वृत्तिकार । इन्होंने श्वेताश्वतर एवं का कोई भी हाथ नहीं है । पुरुष को प्रसन्न और मुग्ध . मैत्रायणीयोपनिषद् पर दार्शनिक वृत्तियाँ लिखी है। करने के लिए प्रकृति अपना कार्य प्रारम्भ करती है । जब प्रकाशानन्द-वेदान्तसिद्धान्तमुक्तावली ग्रन्थ के रचयिता। पुरुष प्राज्ञ होकर अपना स्वरूप पहचान लेता है तब प्रकृति इनके गरु आचार्य ज्ञानानन्द थे। अप्पय्य दीक्षित संकुचित होकर अपनी लीला समेट लेती है । ने 'सिद्धान्तलेश' में इनके मत का उल्लेख किया है। ये प्रकृति-पुरुषव्रत-चैत्र शुक्ल प्रतिपदा को यह प्रारम्भ होता विद्यारण्य के परवर्ती थे, क्योंकि वेदान्तसिद्धान्तमुक्ता- है। इसमें उपवास का विधान है। पुरुषसूक्त से गन्धादि वली में कहीं-कहीं इन्होंने 'पञ्चदशी' के पद्यों को उद्धृत सहित अग्निदेव का पूजन करना चाहिए । अग्नि तथा किया है। अतः इनका जीवन काल पन्द्रहवीं शताब्दी सोम के रूप में पुरुष तथा प्रकृति पूजे जाने चाहिए। वे होना चाहिए। इसके सिवा इनकी जीवन सम्बन्धी और ही वासुदेव तथा लक्ष्मी भी है। श्रीसुक्त से लक्ष्मी का कोई घटना नहीं कही जा सकती।
पूजन होना चाहिए । सुवर्ण, रजत तथा ताम्र का दान
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org