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पैङ्गराज-प्रकरणग्रन्थ
पंङ्गराज-अश्वमेध यज्ञ के बलिपशुओं में से एक जन्तु । पौल्कस-बृहदारण्यक उ० में इस शब्द का उल्लेख चाण्डाल यह पक्षी अर्थ का बोधक है किन्तु पक्षी के प्रकार का ज्ञान एवं घृणित जाति के सदस्यों के लिए हुआ है । स्मृतियों के इससे नहीं होता।
अनुसार पुल्कस निषाद अथवा शूद्र पिता तथा क्षत्रियकन्या पैङ्गल उपनिषद् -एक परवर्ती उपनिषद् ।
का पुत्र है। इसकी गणना वर्णसंकर जातियों में की गयी पैठण-प्राचीन प्रतिष्ठान नगर, जो औरंगाबाद ( महा
है । किन्तु पौल्कस एक जाति हो सकती है । संभवतः यह राष्ट्र ) से बत्तीस मील दूर है। यह शालिवाहन की
वन्य जाति है, जो जंगली जन्तुओं को पकड़ने का काम कर राजधानी और महाराष्ट्र का प्राचीन विद्याकेन्द्र भी था।
अपनी जीविका चलाती थी। यहीं संत एकनाथ का वासस्थान एवं उनके आराध्य पौष्करस-तैत्तिरीय प्रातिशाख्य में उल्लिखित एक आचार्य । भगवान का मन्दिर है। कहते हैं कि यहीं गोदावरी के पौष्टिक-जीवन की पुष्टि के लिए किया हुआ धार्मिक नागघाट पर संत ज्ञानेश्वर ने भैंसे के मुख से वेदमन्त्रों कृत्य पौष्टिक कहलाता है। बृहत्संहिता में सांवत्सर का उच्चारण कराया था। प्रसिद्ध संत कृष्णदयार्णव ( ज्योतिषी) की योग्यता तथा सामर्थ्य की परिगणना का घर भी यहीं है।
करते हुए बतलाया गया है कि उसे शान्तिक तथा पौष्टिक पैप्पलाद ( शाखा )-अथर्ववेद की एक प्राचीन शाखा ।
क्रियाओं में पारङ्गत होना चाहिए । दोनों कृत्यों में अन्तर इसके मन्त्रपाठ की हस्तलिखित प्रतिलिपि १९३०
यह है कि पौष्टिक कार्यों में होम, यज्ञ, यागादि कृत्य आते वि० में कश्मीर से प्राप्त हई थी। शौनक शाखा से
हैं जो दीर्घायु की प्राप्ति के लिए होते हैं; शान्तिक कृत्यों इसकी मन्त्रव्यवस्था में पर्याप्त अन्तर है। पैप्पलाद
में होमादि का आयोजन दुष्ट ग्रहों के प्रभाव को दूर करने संहिता का आठवाँ तथा नवाँ भाग नया जान पड़ता है,
तथा असाधारण घटनाओं, जैसे पुच्छल तारे के उदय, भूजो न तो सांख्यायन में, न किसी और वैदिक संग्रह में
कम्प अथवा उल्काओं के पतन से होने वाले अनिष्ट उपलब्ध है । दे० 'पिप्पलाद' ।
के निवारणार्थ किया जाता है। निर्णयामृत, ४८ तथा पोक्रिपक्रोवइ-तमिल शैवों के चौदह सिद्धान्तशास्त्रों में
कृत्यकल्पतरु के नैत्यकालिक काण्ड, २५४ के अनुसार से एक 'पोक्रिपक्रोदइ' है। इसके रचयिता उमापति
'शान्ति' का तात्पर्य है धर्मशास्त्रानुसार भौतिक विपदाओं शिवाचार्य हैं, जो चौदह सिद्धान्तशास्त्रों में से आठ के
के निवारणार्थ किये गये शास्त्रानुमोदित धार्मिक कृत्य । रचयिता हैं।
पौष्करसंहिता-पाञ्चरात्र साहित्य में १०८ संहिताओं का पोंगलमास-तमिल प्रदेश का एक विशेष व्रतोत्सव ।
महत्त्वपूर्ण स्थान है। इनमें से पौष्कर, वाराह तथा ब्राह्म महाराष्ट्र के गणेशोत्सव, बङ्गाल के दुर्गोत्सव, उडीसा
संहिताएँ सबसे प्राचीन हैं। किन्तु कुछ विद्वान् पद्मसंहिता की रथयात्रा के समान द्रविड प्रदेश में 'पोंगलमास' पर्व
को तथा कुछ लक्ष्मीसंहिता को प्राचीन मानते हैं । का बड़े उत्साह से आयोजन किया जाता है। यह पौष्यजि-सामवेद की शाखापरम्परा में सुकर्मा के शिष्य उत्तर भारत की मकर संक्रान्ति या 'खिचड़ी' का दूसरा पौष्यजि माने जाते हैं। इनके हिरण्यनाभ और
राजपुत्र कौशिक्य नाम के दो शिष्य थे। पौष्यजि ने पौरन्दरक्त--पुरन्दर (इन्द्र) का व्रत । पञ्चमी को इसका उन दोनों को पांच-पांच सौ सामगीतियाँ पढ़ायों। अनुष्ठान होता है । व्रती को तिल की गजक या तिलपट्टी हिरण्यनाभ के शिष्य प्राच्यसामग नाम से विख्यात हुए । से हाथी की आकृति बनाकर उसे सुवर्ण से अलंकृत करना प्रकरणप्रन्थ -- स्मृति साहित्य का एक व्यावहारिक प्रकार चाहिए तथा उस पर अंकुश सहित महावत भी बिठाना प्रकरण ग्रन्थ कहलाता है। इसकी रचना का उद्देश्य चाहिए । हाथी इन्द्र का वाहन है। उसको रक्त वस्त्र से मीमांसा के सिद्धान्तों को स्मृतिग्रन्थों में वर्णित क्रियाओं आच्छादित करके कर्णाभूषण तथा स्वच्छ धौत वस्त्रों सहित पर लागू करना था। यह मुख्यतः मीमांसा का ही एक दान में दे देना चाहिए। इससे व्रती इन्द्रलोक में बहुत अङ्ग है । प्रकरणग्रन्थों में सबसे प्राचीन एवं मुख्य स्मृतिसमय तक वास करता है।
कौस्तुभ है । इसके रचयिता अनन्तदेव थे।
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