________________
पुराणमणि-पुरुष
अठारह पुराणों की मान्य सूची निम्नाति है
१. ब्रह्म पुराण
१०. वराह पुरान
२. पद्म पुराण
११. स्कन्द पुराण
३. विष्णु पुराण
१२. मार्कण्डेय पुराण
४. शिव पुराण
१३.
वामन पुराण
१४.
कूर्म पुराण
१५.
मत्स्य पुराण
७. नारद पुराण
१६.
गरुड़ पुराण
८. अग्नि पुराण
१७. ब्रह्माण्ड पुराण
९. ब्रह्मवैवर्त पुराण
१८. लिङ्ग पुराण
इन सब पुराणों का अलग-अलग परिचय नाम-अक्षरक्रम के अंदर लिखा गया है । इसको यथास्थान देखना चाहिए । पुराणमणि - यह इविड़ (तमिल) भाषा का एक निवन्ध ग्रन्थ है |
५. भागवत पुराण
६. वायु पुराण
पुरावृत्त - अतीत की घटना । यह शब्द इतिहास ( इति + ह + आस = ऐसा वस्तुतः हुआ) का पर्याय है । परवर्ती संस्कृत साहित्य में इसका अर्थ पौराणिक कथा, आख्यानआख्यायिका कथा आदि सपला गया है। इसकी परि भाषा के अनुसार उपर्युक्त कथा या आख्यान में कर्तव्य लाभ, प्रेम तथा मोक्षादि का सारांश भी वर्णित है ।
(१) शंकराचार्य द्वारा स्वास्ति दसनामी संन्यासियों की एक शाखा । माध्व दैष्णव संन्यासियों में भी 'पुरी' उपनामक संत हुए हैं, यथा गयानिवासी महात्मा ईश्वरपुरी। कुछ विद्वानों के विचार से ईश्वरपुरी जैसे वैष्णव सन्तों द्वारा जगनाथपुरी में अधिकांश भजन साधन किया गया था इसलिए उनका 'पुरी' उपनाम प्रसिद्ध हो गया । इसी प्रकार शाक्त संन्यासियों में भी 'पुरी' उपनामक महात्मा हो गये हैं । स्वामी तोतापुरी से परमहंस रामकृष्ण ने संन्यासदीक्षा ली थी अतः उनके मिशन या मठों के संन्यासी पुरी शाखा के सदस्य माने जाते हैं । (२) पुरो (जगनाथपुरी) हिन्दुओं के मुख्य तीथों में से एक है । यहाँ विष्णु के अवतार बलभद्र और कृष्ण का मन्दिर है, जिसे जगन्नाथ ( जगत् के नाथ) का मन्दिर कहते हैं । भारतप्रसिद्ध रथयात्रा का मेला यहीं होता है लाखों की संख्या में भक्त आकर यहां जगन्नाथजी का रथ स्वयं खींचकर पुण्य लाभ करते हैं। इसकी गणना चार धामों - वदरिकाश्रम, रामेश्वरम् जगन्नाथ पुरी
Jain Education International
-----
(पुरुषोत्तमधाम) और द्वारका में है दे० 'पुरुषोत्तम तीर्थ' (जगन्नाथपुरी) | पुरीशिष्यपरम्परा पुरी दसनामी संन्यासियों की एक शाखा है। शंकराचार्य के शिष्य त्रोटकाचार्य से पुरी शिष्यों की परम्परा प्रचलित मानी जाती है । पुरी, भारती और सरस्वती नामों की शिष्यपरम्परा श्रृंगेरी मठ (कुम्भकोणम्) के अन्तर्गत है। दे० 'दसनामी' । पुरीषिणी वेद (५.५३.९) में यह शब्द या तो नदी के अर्थ का द्योतक है, या अधिक सम्भवतः सरयू का विशेषण है, जो 'जल से पूरित बढ़ी हुई' या 'प्रस्तरखण्ड खींचती हुई' के अर्थ में प्रयुक्त है ।
पुरुष पुरुष' शब्द की व्युत्पत्ति 'पुरि शेते इति (पुर अर्थात् शरीर में शयन करता है) की गयी है। इस अर्थ में प्रत्येक व्यक्ति पुरुष है किन्तु ऋग्वेद के पुरुषसूक्त (१०.८०) में आदि पुरुष की कल्पना विराट् पुरुष अथवा विश्वपुरुष के रूप में की गयी है। देवताओं (विश्व की विशिष्ट शक्तियों) ने इसी पुरुष के द्वारा पुरुषमेध किया, जिसके शरीर के विविध अङ्गों से संसार के सभी पदार्थ उत्पन्न हुए फिर भी यह पुरुष संसार में समाप्त नहीं हुआ, इसके अंश से यह सम्पूर्ण सृष्टि व्याप्त है; वह इसका अतिक्रमण कर अनेक विश्व ब्रह्माण्डों को अपने में समेटे हुए है । सृष्टि के मूल में स्थित मूल तत्त्व के अन्तर्यामी और अतिरेकी स्वरूप का प्रतीक पुरुष है। इसी सिद्धान्त को 'सर्वेश्वरवाद' कहते हैं । सांख्य दर्शन के अनुसार विश्व में दो स्वतन्त्र और सनातन तत्व हैं - ( १ ) प्रकृति और (२) पुरुष | सांख्य पुरुषबहुत्व में विश्वास करता है। प्रकृति और पुरुष के सम्पर्क से विश्व का विकास होता है । प्रकृति नटी पुरुष के विलास के लिए अपनी लीला का प्रसार करती है । प्रकृति क्रियाशील और पुरुष निष्क्रिय किन्तु द्रष्टा होता है । इस सम्पर्क से जो भ्रम उत्पन्न होता है उसके कारण पुरुष प्रकृति के कार्यों का अपने ऊपर आरोप कर लेता है और इस कारण उनके परि णामों से उत्पन्न सुख-दुःख भोगता है । पुरुष द्वारा अपने स्वरूप को भूल जाना ही बन्ध है । जब पुरुष पुनः ज्ञान प्राप्त करके अपने स्वरूप को पहचान लेता है तब उसे कैवल्य ( प्रकृति से पार्थमय) प्राप्त होता है; प्रकृति संकुचित होकर अपनी लीला का संवरण कर लेती है और पुरुष मुक्त हो जाता है ।
-
४०७
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org