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पुनर्जन्म-पुराण
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चाहिए। इससे वसिष्ठजी के समान पुत्र-पौत्र प्राप्त नगरकीर्तन की प्रणाली चलायी थी। तत्पश्चात् कर्नाटक होते हैं।
देश में माध्वों द्वारा भक्तिपूर्ण गीत एवं भजनों की रचना पुनर्जन्म-सभी हिन्दू दार्शनिक एवं धार्मिक सम्प्रदायों में होने लगी। उक्त कर्नाटकीय कविभक्तों में प्रथम अग्रगण्य इस सिद्धांत को मान्यता प्राप्त है कि मनुष्य अपने वर्तमान पुरन्दरदास हुए हैं। इनके गीत दक्षिण देश में बहत जीवन के अच्छे एवं बुरे कर्मों के फलभोग के लिए पुनर्जन्म प्रचलित हैं। ग्रहण करता है। यह कारण-कार्यशृंखला के अनुसार परन्ध्रि-ऋग्वेद / ०११६१) में दम ठान्ट का उल्लेख होता है। योनियों का निर्धारण भी कर्म के ही आधार
सम्भवतः एक स्त्रीनाम के रूप में हआ है । यह अश्विनों पर होता है। इसी को संसारचक्र (जन्म-मरणचक्र) भी।
की संरक्षिका थी, जिन्होंने इसे एक पुत्र दिया था, जिसका कहते हैं। इसी लिए पुनर्जन्म से मुक्ति पाने के उपाय
नाम हिरण्यहस्त था। जातिवाचक स्त्री के अर्थ में भी विविध आचार्यों ने अपने-अपने ढंग से बताये हैं। पुन- इसका प्रयोग हुआ है।। जन्म का सिद्धान्त कर्मसिद्धान्त (कार्यकारण-सम्बन्ध) पर
पुरश्चरणसप्तमी-माघ शुक्ल सप्तमी रविवार को मकर अवलम्बित है । पुनर्जन्म का चक्र उस समय तक चलता
के सूर्य में इस व्रत का अनुष्ठान होता है । सूर्य की प्रतिमा रहता है जब तक आत्मा की मुक्ति नहीं होती।
का रक्त वर्ण के पुष्पों, अध्य तथा गन्धादि से पूजन करने पुनर्भ-दुबारा विवाह करने वाली स्त्री। अथर्ववेद में पुनर्भ का विधान है। पञ्चगव्य पान का भी विधान है। एक प्रथा का उल्लेख प्राप्त होता है ( ९.५.२८) । इसके वर्ष तक इस व्रत का अनुष्ठान होता है। प्रति मास पुष्प, अनुसार विधवा पुनः विवाह करती थी तथा विवाह के धूप तथा नैवेद्य भिन्न-भिन्न हों। इससे व्रती समस्त अवसर पर एक यज्ञ होता था जिसमें वह प्रतिज्ञा करती दुरितों के कुफल से मुक्त होता है। 'पुरश्चरण' में पाँच थी कि अपने दूसरे पति के साथ मैं दूसरे लोक में पुनः
क्रियाओं का समावेश रहता है, जैसे जप, पूजन, होम, एकत्व प्राप्त करूंगी। धर्मशास्त्र के अनुसार विवाह के तर्पण, अभिषेक तथा ब्राह्मणों का सम्मान । लिए कुमारी कन्या ही उत्तम मानी जाती थी। पुन से पुराण-प्राच
जन पुराण-प्राचीन काल की कथाओं का वोधक ग्रन्थ । यह उत्पन्न पुत्र को 'औरस' (अपने हृदय से उत्पन्न) न कह
शब्द 'इतिहास-पुराण' द्वन्द्व समास के रूप में व्यवहृत कर पौनर्भव' (पुनभ से उत्पन्न) कहते थे। उसके द्वारा
हुआ है । अकेले भी इसका प्रयोग होता है, किन्तु अर्थ दिया हुआ पिण्ड उतना पुण्यकारक नहीं माना जाता था
वही है । सायण ने परिभाषा करते हुए कहा है कि पुराण जितना औरस के द्वारा । धीरे-धीरे स्त्री का पुनर्भू (पुन
वह है जो विश्वसृष्टि की आदिम दशा का वर्णन
करता है। विवाह) होना उच्च वर्गों में बन्द हो गया । आधुनिक
पुराण नाम से अठारह या उससे अधिक पुराण ग्रन्थ युग में विधवाविवाह के वैध हो जाने से स्त्रियाँ पहले
और उपपुराण समझे जाते हैं, जिनकी दूसरी संज्ञा ‘पञ्चपति के मरने पर दूसरा विवाह कर रही हैं, फिर भी
लक्षण' है । विष्णु, ब्रह्माण्ड, मत्स्य आदि पुराणों में पुराणों उनके साथ अपमानसूचक 'पुनर्भ' शब्द नहीं लगता ।
के पाँच लक्षण कहे गये हैं : वे पूरी पत्नी और उनसे उत्पन्न सन्तति औरस समझी
सर्गश्च प्रतिसर्गश्च वंशो मन्वन्तराणि च । जाती है।
वंशानुचरितं ज्ञेयं पुराणं पञ्चलक्षणम् ॥ पुनोग्रन्थ-यह कबीरपन्थ की सेवापुस्तिका है।
[सर्ग वा सृष्टि का विज्ञान, प्रतिसर्ग अर्थात् सुष्टि का पुरन्दरदास-एक प्रसिद्ध कर्नाटकदेशीय भक्त । माध्व विस्तार, लय और फिर से सृष्टि, सृष्टि की आदि वंशासंन्यासियों में सोलहवीं शती के प्रारम्भ में गया के वली, मन्वन्तर अर्थात् किस-किस मनु का अधिकार कब महात्मा ईश्वरपुरी ने दक्षिण भारत की यात्रा की तथा तक रहा और उस काल में कौन-कौन सी महत्त्वपूर्ण वहाँ उन्होंने माध्वों को चैतन्य देव के सदृश ही अपने घटनाएँ हुई और वंशानचरित अर्थात् सूर्य और चन्द्रवंशी भक्तिमूलक गीतों एवं संकीर्तन से प्रभावित किया। राजाओं का संक्षिप्त वर्णन । ये ही पाँच विषय पुराणों में वंगदेश में चैतन्य महाप्रभु ने भी सर्वप्रथम संकीर्तन एवं मूलतः वणित हैं ।]
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