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पुत्रकामव्रत-पुत्रप्राप्तिव्रत
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६. सहोढ (विवाह के समय गर्भवती कन्या से उत्पन्न) चचित करके, कलश में सुवर्ण रखकर स्थापित किया जाना ७. पौनर्भव (दुबारा विवाहित पत्नी से उत्पन्न) चाहिए । कलश के ऊपर ताम्रपात्र में गुड़ रखना चाहिए ८. दत्तक (पुत्राभाव में दूसरे परिवार से गृहीत) और भगवान् ब्रह्मा तथा मावित्री देवी की प्रतिमा रखी ९. क्रीत (दुसरे परिवार से खरीदा हुआ)
जानी चाहिए। प्रातः यह कलश किसी ब्राह्मण को दान १०. स्वयंदत्त (माता-पिता से परित्यक्त एवं स्वयं । कर दिया जाय । उसी ब्राह्मण को स्वादिष्ठ भोजन करासमर्पित)
कर व्रती लवणरहित भोजन करे । यह क्रिया एक वर्ष तक ११. कृत्रिम (स्वेच्छा से दूसरे परिवार से पुत्रवत् प्रतिमास की जाय । तेरहवें महीने में एक घतधेनु, गृहीत)
सवस्त्र शय्या, सुवर्ण तथा रजत की क्रमशः ब्रह्मा एवं १२. अपविद्ध (पड़ा हुआ प्राप्त और परिवार में सावित्री की प्रतिमाएँ दान में दी जायें। श्वेत तिलों से पालित)। ये बारह प्रकार के पुत्र दो वर्ग में विभाजित थे
___ ब्रह्माजी के नाम की आवृत्ति करते हए हवन करना (१) मुख्य और (२) गौण । इनमें प्रथम दो मुख्य और शेष चाहिए । व्रती ( पुरुष या स्त्री ) समस्त पापों से मुक्त गौण हैं । सामाजिक दष्टि से गौण पत्रों का भी महत्त्व था। होकर सुन्दर पुत्र प्राप्त करते हैं। दे० कृत्यकल्पतरु, इससे सभी प्रकार की संतति का पालन-पोषण संभव ३७६-३७८; हेमाद्रि, २.१७३-१७४ ।। था और परिवार का समाजीकरण हो जाता था। सभी पुत्रवविधि-रविवार के दिन रोहिणी या हस्त नक्षत्र हो पुत्रों का परिवार में समान पद नहीं था। किन्तु आज- तो वह पुत्रद योग होता है । उस दिन उपवास रखते हुए कल केवल दो ही प्रकार के पुत्र मान्य हैं, औरस और सूर्य नारायण का पुष्प-फलादि से पूजन करना चाहिए । दत्तक । शेष क्रमशः या तो औररा में सम्मिलित हो गये व्रती को चाहिए कि वह सूर्य की प्रतिमा के सामने सोये (जैसे सहोढ और गूढज) अथवा लुप्त हो गये।
तथा महाश्वेता मंत्र का जप करे ( मंत्र यह है-हाँ ह्रीं पुत्रकामवत-(१) भाद्रपद की पूर्णिमा को इस व्रत का सः ............ ) । दूसरे दिन करवीर के पुष्पों तथा रक्तअनुष्ठान होता है। पुत्ररहित मनुष्य पुत्रेष्टि यज्ञ करने
चन्दन मिश्रित अर्घ सूर्य को तथा रविवार को समर्पित के पश्चात् गुहा में प्रविष्ट हो, जहाँ रुद्र निवास करते हैं।
करे । तदनन्तर वह पार्वण श्राद्ध करे तथा मध्यम पिण्ड तदनन्तर रुद्र, पार्वती तथा नन्दी की सन्तुष्टि के लिए होम (तीन में से बीच वाला) स्वयं खाये । हेमाद्रि में इस व्रत तथा पूजन का विधान है । व्रती को उपवास करना चाहिए,
ज मानती को पार करना चाहिए का उतना विशद वर्णन नहीं है जितना कृत्यकल्पतरु में। तत्पश्चात् सर्वप्रथम अपने सहायकों को भोजन कराकर पुत्रप्राप्तिव्रत-(१) वैशाख शुक्ल षष्ठी तथा पञ्चपी को वह सपत्नीक भोजन करे और गहा की परिक्रमा करके उपवास रखते हुए स्कन्द भगवान् की पूजा की जाती है । पत्नी को रुद्रविषयक दिव्य व्याख्यान सुनाये । व्रती को यह तिथिव्रत है और एक वर्ष पर्यन्त चलता है । स्कन्द के चाहिए कि वह पत्नी को तीन दिनों तक दूध तथा चावल
चार रूप (नाम) हैं-स्कन्द, कुमार, विशाख तथा गुह । ही खाने को दे। इस व्रत से वन्ध्या पत्नी भी पुत्र प्राप्त इन नामों के अनुसार उपासना करने से पुत्रेच्छु, धर्मेच्छु करती है । व्रती को इस सबके बाद एक प्रादेश लम्बी अथवा स्वास्थ्य का इच्छुक अपनी कामनाओं को सफल सुवर्ण, रजत अथवा लौह की शिवप्रतिमा का निर्माण कर लेता है। कराकर पूजन करना चाहिए । तदनन्तर अग्नि में मूर्ति को (२) श्रावण पूर्णिमा को यह व्रत होता है । यह गरम कर एक पात्र में उसे रखकर एक प्रस्थ दूध से तिथिव्रत है तथा शाङ्करी ( दुर्गा ) देवता। पुत्रार्थी, उसका अभिषेक करे और उस अभिषिक्त दूध को पत्नी विद्यार्थी, राज्यार्थी तथा यशःकामी को इस व्रत का को पिलाये। दे० कृत्यकल्पतरु, ३७४-३७६; हेमाद्रि, आचरण करना चाहिए । देवीजी का सुवर्ण या रजत का २.१७१-७२ ।
खड्ग या पादुकाएं अथवा प्रतिमा निर्माण कराकर किसी (२) ज्येष्ठ मास की पूर्णिमा को इस व्रत का शुभ नक्षत्र में वेदी पर स्थापित किये जायें, उसी वेदी पर अनुष्ठान करना चाहिए । श्वेत अक्षतों से एक कलश को यव बोये जायँ तथा हवन हो। देवोजी को भिन्न-भिन्न परिपूर्ण करके उसे श्वेत वस्त्र से ढककर, श्वेत चन्दन से प्रकार के फल-फूल तथा अन्य पदार्थ अर्पित किये जायें ।
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