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पूर्ण-पूर्णावतार
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देवमन्दिर है। नगर में भी श्रीराममन्दिर, लक्ष्मीनारायणमन्दिर तथा कई जैन मन्दिर है। पूना के आस-पास भी कुछ दर्शनीय स्थान हैं, जैसे पार्वतीमन्दिर, आलंदी, देह, खंडोवा आदि । काशी की भाँति पूना भी संस्कृत के अध्ययन-अध्यायन का केन्द्र है। आधुनिक विश्वविद्यालय तथा प्राच्य विद्यासंस्थान आदि की स्थापना यहाँ हुई है । पूर्णब्रह्म का पर्याय । सृष्टि, विकास, विवर्तन तथा अनंक अन्य परिवर्तनों और विकृतियों के होते हुए भी ब्रह्म की पूर्णता नष्ट नहीं होती है। कौषीतकि उपनिषद् ( ४.८) में अजातशत्रु ने इसी सिद्धान्त का प्रतिपादन किया है। बहदारण्यक उपनिषद् में भी इस सिद्धान्त का प्रतिपादन है । उपनिषद्वाक्य है :
पूर्णमदः पूर्णमिदं पूर्णात्पूर्णमुदच्यते ।
पूर्णस्य पूर्णमादाय पूर्णमेवावशिष्यते ।। [ यह सारा बाह्य जगत् पूर्ण है, यह अन्तःजगत् भी। पूर्ण है, पूर्ण से पूर्ण विकसित हो रहा है। पूर्ण से पूर्ण निकाल लेने पर भी पूर्ण ही शेष रहता है ( यह विचित्र स्थिति है )]। पूर्णत्व-वस्तुसत्ता को प्रकट करने वाला एक गुण । दे०
'पूर्ण' । पूर्णमास-पूर्णचन्द्र दिवस अथवा पूर्णमासी पर्व के समय किया जाने वाला यज्ञ-उत्सव । यह पवित्र और आवश्यक कर्म था, इसकी स्मृति में दान, व्रत तथा अन्य पुण्य कार्य करने की प्रथा आज भी प्रचलित है । पूर्णावतार-विष्णु के अवतार प्रायः दो प्रकार के होते हैं, एक अंशावतार एवं दूसरा पूर्णावतार । कलाओं के विकास अथवा भेद से अंशावतार और पूर्णावतार के स्वरूप तथा कार्यों में पार्थक्य होता है । अंशावतार में परमेश्वर की नवीं कला से पंद्रह कलाओं तक का विकास होता है। पूर्णावतार में सोलहवीं कला का भी पूर्ण विकास रहता है । आंशिक और पूर्ण दोनों ही अवतार यद्यपि सभी जीवों के कल्याणसम्पादन के लिए होते हैं किन्तु पूर्णावतार में परमात्मा की आध्यात्मिक, आधिदैविक और आधिभौतिक त्रिविध सत्ताओं की पूर्णता रहती है। अंशावतार की उपकारिता एवं उपयोगिता केवल एक- देशिक होती है। उदाहरणस्वरूप परशुराम, बुद्ध आदि को समझ सकते हैं, जिनकी कार्यकारिता एकमुखी अथवा एकदेशिक रही । पूर्णावतार भगवान् श्री कृष्ण समझे जाते
हैं, जिनके कार्य बहुद्देशीय अथबा सत्तात्रय से परिपूर्ण एवं सभी देश और काल में पूर्ण थे। अंशावतार रूप में अवतरित परशुराम ने उद्दण्ड क्षत्रियों का बिनाश किया, किन्तु अराजकता समाप्त नहीं हो सकी, अतः तुरन्त ही रामावतार की आवश्यकता हुई। अतः ऐसा माना जा सकता है कि अंशावतारावतरित दैवी शक्तियाँ अपूर्ण रहती हैं। ये अवतार कुछ समय के लिए अव सकते हैं, किन्तु सार्वकालिक और सार्वत्रिक रूप में नहीं।
इसी प्रकार भगवान् बुद्ध ने भी अहिंसावाद का मण्डन कर यज्ञीय हिंसा का भी खण्डन किया और यहाँ तक कि ईश्वर और वेद का भी खण्डन कर तात्कालिक परिस्थितियों के अनुसार सभी जीवों का कल्याण किया। किन्तु यह सब केवल सामयिक और एकदेशिक होने के कारण आगे चलकर समाप्त हो गया और इसकी प्रतिक्रिया के परिणामस्वरूप भगवान् शिव को शंकराचार्य के रूप में प्रकट होकर वेद और यज्ञ का मण्डन तथा बौद्धमत को परास्त करना पड़ा । इसके विपरीत पूर्णावतार रूप में अवतरित भगवान् कृष्ण ने संसार का जो कल्याण किया, उसकी प्रतिक्रिया के लिए किसी अन्य अवतार की आवश्यकता नहीं हुई, यही पूर्णावतार की विशेषता है। सबसे महान् विशेषता यह है कि अंशावतारों में कला के आंशिक विकास के परिणामस्वरूप एक ही भाव की प्रधानता रहती है और दूसरे भाव एवं ज्ञान, विचार आदि की गौणता हो जाया करती है। किन्तु पूर्णावतार में इस प्रकार की कोई विशेष बात नहीं होती, ये कर्म, उपासना, ज्ञान; इन तीनों की लीला से पूर्णतया युक्त ही रहते हैं।
पूर्णावतार को विशेषता यह है कि इसमें ऐश्वर्य एवं माधुर्य दोनों शक्तियों का पूर्ण रूप से समावेश रहता है । अंशावतार में दोनों शक्तियों की समानता नहीं होती, किसी में ऐश्वर्य का प्राधान्य तो किसी में माधुर्य का प्राधान्य रहता है।
पूर्ण अवतारों में आधिभौतिक, आधिदैविक और आध्यात्मिक पूर्णता होने के कारण उनकी वृत्तियाँ समान और पूर्ण सुन्दर होती हैं। इनमें आधिभौतिक पूर्णता होने के कारण ब्रह्मचर्य और सौन्दर्य की पूर्णता, आधिदैविक पूर्णता होने के कारण शक्ति और ऐश्वर्य की पूर्णता, आध्यात्मिक पूर्णता होने के कारण ज्ञान एवं ऐश्वर्य की पूर्णता का होना
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