________________
४१२
पुष्पसूत्र-पूना
पुष्पसूत्र-गोभिल का रचा हुआ सामवेद का सूत्र ग्रन्थ । पुष्यस्नान-हेमाद्रि, बृहत्संहिता, कालिकापुराण के अनुइसके पहले चार प्रपाठकों में नाना प्रकार के पारिभाषिक सार यह शान्तिकर्म है। रत्नमाला में कहा गया है कि
और व्याकरण द्वारा गढ़े हुए शब्द आये हैं, उनका मर्म जिस प्रकार चतुष्पदों में सिंह महान् शक्तिशाली है उसी समझना कठिन है। इन प्रपाठकों की टीका भी नहीं प्रकार समस्त नक्षत्रों में पुष्य शक्तिमान् है । इस दिन मिलती, किन्तु शेष अंश पर एक विशद भाष्य अजातशत्रु किये गये समस्त कार्यों में सफलता अवश्यम्भावी है, चाहे का लिखा हुआ है। ऋग्वेद की मन्त्ररूपी कलिका किस चन्द्रमा प्रतिकूल क्यों न हो। प्रकार सामरूप पुष्प में परिणत हुई-इस ग्रन्थ में बताया पुष्याभिषेक-जगन्नाथजी की बारह यात्राओं में से एक । गया है। दाक्षिणात्यों में यह झुल्ल सूत्र' के नाम से प्रसिद्ध प्रति वर्ष पौष मास की पूर्णिमा को पुष्य नक्षत्र के दिन है और कहते हैं कि यह वररुचि की रचना है। दामोदर
यह उत्सव मनाया जाता है। पुत्र रामकृष्ण की लिखी इस पर एक वृत्ति भी है। पुष्यार्कद्वादशी-जब द्वादशी के दिन सूर्य पुष्य नक्षत्र में पुष्पाष्टमी-श्रावण शुक्ल अष्टमी को इस व्रत का प्रारम्भ हो, जनार्दन का पूजन करणीय है। इससे समस्त दुरितों होता है। यह तिथिव्रत है, इसके देवता शिव हैं । यह का क्षय होता है। एक वर्ष पर्यन्त चलता है। प्रति मास भिन्न-भिन्न पुष्पों पूजा--(१) देवार्चन की दो विधियाँ हैं-(१) याग और का उपयोग करना चाहिए। विभिन्न प्रकार के ही नैवेद्य (२) पूजा । अग्निहोत्र द्वारा अर्चन करना याग अथवा भिन्न-भिन्न नामों से शिवजी को अर्पण करने चाहिए। यज्ञ है। पत्र, पुष्प, फल, जल द्वारा अर्चन करना पुष्यद्वादशी-जब पुष्य नक्षत्र द्वादशी को पड़े तथा चन्द्रमा
पूजा है। और गुरु एक स्थान पर हों और सूर्य कुम्भ राशि पर हो
(२) किन्हीं निश्चित द्रव्यों के साथ देवताओं के अर्चन तब व्रती को ब्रह्मा, हरि तथा शिव की अथवा अकेले को पूजा कहते है । इसमें प्रायः पञ्चोपचारों का परिग्रहण वासुदेव की पूजा करनी चाहिए।
है, यथा गन्ध, पुष्प, धूप, दीप तथा नैवेद्य । पुष्पों के
सम्बन्ध में कुछ निश्चित नियम हैं, जो प्रति देवी-देवता पुष्यव्रत-यह नक्षत्रव्रत है। सूर्य के उत्तरायण होने पर
__ की पूजा में ग्राह्य अथवा अग्राह्य है। शिवनी पर केतकी शुक्ल पक्ष में ऋद्धि-सिद्धि का इच्छुक व्यक्ति कम से कम
पुष्प नहीं चढ़ाया जाता, दुर्गाजी की पूजा में दूर्वा तथा एक रात्रि उपवास रखे तथा स्थालीपाक (बटलोई भर
सूर्यपूजा में बिल्वपत्र निषिद्ध है । महाभिषेक में शिव तथा जी अथवा चावल दूध में) बनाये। तदनन्तर कुबेर (धन
सूर्य को छोड़कर शङ्ख से हो जल चढ़ाया जाना चाहिए। के देवता) की पूजा करे। पकाये हए स्थालीपाक में से
वैसे साधारणतः सभी देवों की पूजा अथवा व्रतों की विधि कुछ अंश, जिसमें शुद्ध नवनीत का मिश्रण हो, किसी
के समान ही नियम हैं । दे० व्रतराज, ४७-४९ । ब्राह्मण को खिलाया जाय तथा उससे निवेदन किया जाय
पूतक्रतु-पवित्र यज्ञ करनेवाला एक धार्मिक प्रश्रयदाता, कि वह 'समृद्धिर्भवतु' इस मन्त्र का प्रति दिन जप कर जो ऋग्वेद (८.६७,१७) में उल्लिखित है तथा स्पष्टतः
और तब तक जप करे जब तक अगला पुष्य नक्षत्र न आ अश्वमेध का कर्ता जान पड़ता है। जाय । ब्राह्मणों की संख्या आने वाले पुष्य नक्षत्रों के क्रम पूतना-राक्षसी, जिसका वर्णन भागवत पुराण में पाया से बढ़ती जायेगी और यह वृद्धि पूरे वर्ष होगी। व्रती को जाता है । इसका वध कृष्ण ने अपने गोकुलवासकाल में केवल प्रथम पुष्य नक्षत्र के दिन उपवास करने की आवश्य- किया था। महाभारत में इसका उल्लेख नहीं है। कता है। इस व्रत के परिणाम से व्रती के ऊपर ऋद्धि पूतिका-सोमलता के स्थान पर व्यवहृत होने वाला एक तथा समृद्धियों की वर्षा होगी।
पौधा । तैत्ति० सं० ( २.५,३,५ ) में इसका उल्लेख दही आपस्तम्ब धर्मसूत्र ( २. ८.२०.३-२२ ) में व्रत के जमाने के साधनरूप में हुआ है ।। निषिद्ध आचरणों की परिगणना की गयी है। कृत्यकल्प- पूना-इसका प्राचीन नाम पुण्यपत्तन था। मध्ययुगीन तरु (३९९-४००) ने उनकी विशद व्याख्या की है, हेमाद्रि मराठों और पेशवाओं के समय के अवशेष यहाँ पाये (२.६२८) ने भी ऐसा ही किया है।
जाते हैं । मोटा और मूला नदियों के संगम के पास ही
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org