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पुजारी-पुत्र
उल्लेख अथर्ववेद (६.२.१) में हआ है । यह यज्ञ पुत्रोत्पत्ति पुण्डरीकाक्ष-(१) विष्णु का एक पर्याय है। (२) तमिल की कामना से किया जाता था और गृह्यसूत्रों के समय देश के श्रीवैष्णवों में नाथ मुनि अति प्रसिद्ध हो गये हैं। तक इसकी गणना संस्कारों में होने लगी। आगे चलकर । इन्हीं के शिष्य पुण्डरीकाक्ष थे । इनके पश्चात् राम मिश्र यह संस्कार भ्रूग की पुष्टि के लिए ही किया जाने लगा। तथा उनके उत्तराधिकारी आचार्य यामुनाचार्य हए। पुजारी-देवालयों में मूर्ति की विधिवत् पूजा के लिए पुण्डरीकाक्ष तथा राम मिश्र के बारे में कुछ अधिक ज्ञात नियुक्त व्यक्ति । हिन्दू धर्म के विकासक्रम में बारहवीं से नहीं है । सोलहवीं शती तक अनेक बड़े-बड़े सम्प्रदाय स्थापित हुए, पुण्डरीकाक्ष स्वामी-विशिष्टाद्वैत वैष्णव परम्परा के एक किन्तु सोलहवीं शती के उत्तरार्द्ध से उत्तर तथा दक्षिण आचार्य । इनकी गुरुपरम्परा इस प्रकार है : भगवान् भारत में ये सम्प्रदाय अवनति की ओर गतिमान् रहे। नारायण ने महालक्ष्मी को वैष्णव धर्म का उपदेश किया, असंख्य लोगों की आध्यात्मिक प्णस को मिटाने के लिए उनसे वैकुण्ठपार्पद विष्वक्सेन को उपदेश मिला, उनसे सामान्य पुजारियों ने लोकप्रिय धर्म का आन्दोलन आरम्भ शठकोप स्वामी को। इनके शिष्य नाथ मुनि हए और इनके किया। पुराने बिखरे हुए विचारों को समेट कर नाना देवी-शिष्य पुण्डरीकाक्ष स्वामी, इनके शिष्य राम मिश्र स्वामी देवताओं की प्रतिमाएँ स्थापित की गयी और उनकी पूजा थे और इनसे यामुनाचार्य को यह उपदेश प्राप्त हुआ । की ओर लोगों का ध्यान आकर्षित कर धार्मिक भावना पण्ड-द्विज वैष्णवों की दीक्षा में पाँच संस्कार करने होते को जीवित रखा गया । उत्तरी भारत में स्मातं ब्राह्मण हैं। वे हैं ताप, पुण्ड, नाम, मन्त्र एवं याग । पुण्ड्र साम्प्रस्वयं मन्दिरों में जाकर अपनी शाखा के गृह्यसूत्रों के दायिक चिह्न को कहते हैं, जो दीक्षा लेने वाले के शरीर निर्देशानुसार देवतार्चन करते थे। किन्तु देवता की षोड- (ललाट) पर अंकित किया जाता है। शोपचार पूजा के लिए पुजारी रखे जाते थे जो निश्चित पण्यराज-शब्दाद्वैतवाद सिद्धान्त का सर्वप्रथम भर्तहरि समय पर विधिवत् पूजा कार्य किया करते थे ।
और फिर भर्तृमित्र ने प्रतिपादन किया । भर्तृहरि के प्रसिद्ध पणताम्बे-महाराष्ट्र का प्रसिद्ध तीर्थ स्थल । मनमाड से ४१ ग्रन्थ 'वाक्यपदीय' में इस सिद्धान्त का पूर्ण वर्णन है, मील दूर पुनताम्बा स्थान है, इसका प्राचीन नाम पुण्य- जिसकी व्याख्या पुण्यराज और हेलाराज की रचना में प्राप्त स्तम्भ है। यह गोदावरी के किनारे है। महायोगी चांग- होती है । देव, जो पीछे संत ज्ञानेश्वर के शरणापन्न हो गये थे, दीध पत्र-इसका प्रारम्भिक अर्थ लघु अथवा कनिष्ठ था। काल तक यहाँ रहे। यहाँ श्री बिठोवा का मन्दिर, विश्वे- 'पत्रक' रूप का व्यवहार प्यारभरे सम्बोधन में अपने से श्वर शिवमन्दिर और अनेक अन्य शिवमन्दिर निर्मित छोटे लोगों के लिए होता था। आगे चलकर इस शब्द है । बाजार में श्री वङ्कटेश मन्दिर भी है।
की धार्मिक व्युत्पत्ति की जाने लगी-"पुत् = नरक से, पुण्डरीक-पुण्डरीक अथवा कमल भारत का दार्शनिक पुष्प त्र= बचाने वाला।" पुत्रों द्वारा प्रदत्त पिण्ड और श्राद्ध है । यह चेतना और ज्ञान के विकास का प्रतीक है। इस- से पिता तथा अन्य पितरों का उद्धार होता है, इसलिए वे लिए भारतीय साहित्य और कला के अनेक रूपों में इसका पितरों को नरक से त्राण देने वाले माने जाते हैं। उपयोग हुआ है। छान्दोग्य उपनिषद् में मानवहृदय से धर्मशास्त्र में बारह प्रकार के पुत्रों का उल्लेख पाया इसकी तुलना की गयी है।
जाता है । मनुस्मृति ( अध्याय १, श्लोक १५८-१६०) के पुण्डरीकयज्ञप्राप्ति-इस व्रत में जल के स्वामी वरुण देव । अनुसार इनका क्रम इस प्रकार है : की पूजा की जाती है । इसका अनुष्ठान द्वादशी को होता १. औरस (पति द्वारा अपनी पत्नी से उत्पन्न) है। इससे पुण्डरीकयज्ञ के फल की प्राप्ति होती है । दे० २. पुत्रिकापुत्र (दौहित्र) । हेमाद्रि, १.१२०४ । वनपर्व (३०.११७) के अनुसार यह ३. क्षेत्रज (अपनी पत्नी से दूसरे पुरुष द्वारा उत्पन्न) व्रत भी अश्वमेध तथा राजसूय यज्ञों के समान पुण्यकारक ४. गूढज (पत्नी द्वारा पति के अतिरिक्त अन्य पुरुष से है । आश्वलायन श्रौतसूत्र, उत्तराष्टक, ४.४ में पुण्डरीक- गुपचुप उत्पन्न) यज्ञ का वर्णन है।
५. कानीन (अविवाहित कन्या से उत्पन्न)
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