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पितृपक्ष-पिपीतकद्वादशी
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आकर्षित करता है, उसका आनन्दपूर्वक स्वागत करता पितृपक्ष-आश्विन कृष्ण पक्ष का नाम । इसमें पन्द्रह दिनों है (७.१०३.३ )।
तक पितरों को पिण्डदान किया जाता है। एक प्रकार का यह कहना कठिन है कि किस सीमा तक पुत्र पिता की यह पूर्वपुरुषों का सामूहिक श्राद्ध है। इस पक्ष में ज्ञातअधीनता में रहता था एवं यह अधीनता कब तक रहती थी। अज्ञात सभी पितरों का स्मरण किया जाता है। पूर्वजों ऋग्वेद ( २.२९.५ ) में आया है कि एक पत्र को उसके की स्मृति सजीव रखने का यह एक धार्मिक साधन है। पिता ने जआ खेलने के कारण बहत तिरस्कृत किया तथा पितृभूति-कात्यायन श्रौतसूत्र के अनेक भाष्यकार एवं ऋज्राश्व को (ऋ० १.११६,१६,११७,१७) उसके पिता वृत्तिकारों में विशेष उल्लेखनीय पितभति भी है। ने अंधा कर दिया। पुत्र के ऊपर पिता के अनियन्त्रित पितृमेधसूत्र-यह गृह्यसूत्र है जो गौतम द्वारा रचित बतलाया अधिकार का यह द्योतक है । परन्तु ऐसी घटनाएँ क्रोधावेश जाता है। इसके टीकाकार अनन्तज्ञान कहते हैं कि ये में अपवाद रूप से ही होती थीं।
गौतम न्यायसूत्र के रचयिता महर्षि गौतम ही हैं । इसके
अतिरिक्त गौतम का एक और धर्मसूत्र है । उसका नाम भी इस बात का भी पर्याप्त प्रमाण नहीं है कि पुत्र बड़ा
गौतमधर्मसूत्र है। होकर पिता के साथ रहता था अथवा नहीं; उसकी स्त्री ।
पितयान-ऋग्वेद तथा परवर्ती ग्रन्थों में पितयान उसके पिता के घर की सदस्यता प्राप्त करती थी अथवा
(पितरों के मार्ग ) का 'देवयान' से भेद प्रकट होता है। नहीं; वह पिता के साथ रहता था या अपना अलग घर
तिलक के मतानुसार देवयान उत्तरायण तथा पित्यान बनाता था। वृद्धावस्था में पिता प्रायः पुत्रों को सम्पत्ति
दक्षिणायन से सम्बन्धित है। शतपथ ब्राह्मण के एक परिका विभाजन कर देता था तथा श्वशुर पुत्रवधू के अधीन
च्छेद ( २.१.३,१-३) से वे यह निष्कर्ष निकालते हैं। हो जाता था। शतपथब्राह्मण में शनःशेप की कथा से
वसन्त, ग्रीष्म एवं वर्षा पितरों की ऋतु है । देवयान का पिता की निष्टरता का उदाहरण भी प्राप्त होता है।
प्रारम्भ वसन्त से तथा पितृयान का प्रारम्भ वर्षा से होता उपनिषदों में पिता से पुत्र को आध्यात्मिक ज्ञान प्राप्त
है । इसके साथ वे देव तथा यम नक्षत्र (तैत्तिरीय सं०,१५, करने पर जोर डाला गया है।
२,६ ) का सम्बन्ध जोड़ते हैं। प्रकृत पुत्रों के अभाव में दत्तक पुत्र को गोद लेने की मरने के अनन्तर प्रेत अपने कर्मों के अनुसार इन दो प्रथा थी। स्वाभाविक पुत्रों के रहते हुए भी अच्छे व्यक्तित्व मार्गों में से किसी एक से परलोक को प्रस्थान करता है। वाले बालकों को गोद लेने की प्रथा थी। विश्वामित्र सामान्य लौकिक कर्म करने वाले पिल्यान से जाते है । यज्ञ द्वारा शुनःशेप का ग्रहण किया जाना इसका उदाहरण तथा अन्य निष्काम कर्म करने वाले देवयान से जाते है । है । साथ ही इस उदाहरण से इस बात पर भी प्रकाश पितृव्रत-(१) एक वर्ष तक प्रति अमावस्या को इस व्रत पड़ता है कि एक वर्ण के लोग अन्य वर्ण के बालकों को का अनुष्ठान होता है । व्रती केवल दुग्धाहार करता है । भी ग्रहण कर लेते थे। इस उदाहरण में विश्वामित्र का वर्ष के अन्त में श्राद्ध करके वस्त्र, जलपूर्ण कलश तथा क्षत्रिय तथा शुनःशेप का ब्राह्मण होना इसे प्रकट करता गौ दान में दी जाती है । इस व्रत से सौ पीढ़ियाँ तर
गौ दान में दी जाती है । म त है। गोद लिये गये पुत्र को साधारणतः ऊँचा सम्मानित जाती हैं और व्रती विष्णु लोक को प्राप्त करता है। स्थान प्राप्त नहीं था। पुत्र के अभाव में पुत्री के पुत्र को (२) चैत्र कृष्ण प्रतिपद् से सात दिनों तक सात पितभी गोद लिया जाता था तथा उस पुत्री को पुत्रिका कहते गणों की पूजा करनी चाहिए, जो अग्निष्वात्त, बहिर्षद थे। अतएव ऐसी लड़कियों के विवाह में कठिनाई होती थी
इत्यादि नामों से प्रसिद्ध हैं । एक वर्ष अथवा बारह वर्ष जिसका भाई नहीं होता था, क्योंकि ऐसा बालक अपने
तक इसका अनुष्ठान होता है। पिता के कूल का न होकर नाना के कुल का हो जाता था। पिपीतकद्वादशी-वैशाख शुक्ल की द्वादशी को पिपीतक
परिवार में माता व पिता में पिता का स्थान प्रथम द्वादशी कहते हैं । इस तिथि को शीतल जल से भगवान था। दोनों को युक्त कर 'पितरौ' अर्थात् पिता और माता केशव की प्रतिमा को स्नान कराकर गन्धाक्षत, पुष्पादि यौगिक शब्द का प्रयोग होता था।
उपचारों से पूजन किया जाता है। प्रथम वर्ष चार जल
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