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पारावत-पाशपत
भास्कर), प्रकाश (ले० वेद मिश्र), संस्कारगणपति (ले० रामकृष्ण), सज्जनवल्लभा (ले० जयराम), भाष्य (ले० कर्क), भाष्य (ले० गदाधर), भाष्य (ले० हरिहर), भाष्य (ले० विश्वनाथ), भाष्य (ले० वासुदेव दीक्षित)। पारावत-यजुर्वेदवणित अश्वमेध के बलिपशुओं को तालिका में पारावत (एक प्रकार के कबूतर) का नामो ल्लेख है। पाराशर-पराशर से प्रवर्तित गोत्र । पराशर की गणना गोत्रऋषियों में की गयी है। महाभारतकार व्यास भी पाराशर हैं क्योंकि उनके पिता का नाम पराशर था। दे० 'पाराशरस्मृति' । पाराशर उपपुराण-उन्तीस प्रसिद्ध उपपुराणों में से पारा
शर उपपुराण भी एक है। पाराशर(द्वैपायन)ह्रद-हरियाना प्रदेशवर्ती यह तीर्थस्थान बहलोलपुर ग्राम के समीप, करनाल से कैथल जानेवाली सड़क से लगभग छः मील उत्तर है। कहा जाता है कि महाभारतयुद्ध के मैदान से भागकर दुर्योधन इसी सरोवर में छिप गया था। यह भी कहा जाता है कि महर्षि पराशर का आश्रम यहीं था । फाल्गुन शुक्ल एकादशी को यहाँ बड़ा मेला होता है। पारिप्लव-पारिप्लव शब्द आख्यान के लिए व्यवहृत हुआ है, जिसका अश्वमेध यज्ञ के अवसर पर पाठ किया जाता था तथा जो वर्षभर निश्चित काल के पश्चात् दुहराया जाता था। यह शतपथ ब्राह्मण (१३.१४,३,२-१५) तथा श्रौतसूत्रों में वर्णित है। पार्थसारथि मिश्र-मीमांसा दर्शन के कुमारिल भट्रकृत श्लोकवार्तिक की टीका 'न्यायरत्नाकर' की रचना पार्थसारथि मिश्र ने की है।
पूर्व मीमांसा के ग्रन्थकारों में इनका स्थान बड़ा सम्माननीय है। इनका स्थितिकाल लगभग १३५७ वि० है। इनका 'शास्त्रदीपिका' आधुनिक शैली पर प्रस्तुत कर्ममीमांसा का ग्रन्थ है, जिसका अध्ययन प्राचीन ग्रन्थों की अपेक्षा अधिक हुआ है। 'शास्त्रदीपिका' जैमिनि के पूर्वमीमांसासूत्र की टोका है । इनकी अन्य टीकाओं में 'तन्त्ररत्न', 'न्यायरत्नमाला' आदि प्रसिद्ध है। पार्वत-शङ्कर के प्रशिष्यों में, जो दसनामी संन्यासी के नाम से विख्यात हुए, पर्वत भी एक थे। इनकी शिष्यपरम्परा पार्वत कहलायी। दे० 'दसनामी' ।
पालोचतुर्दशीव्रत-भाद्र पद शुक्ल चतुर्दशी का व्रत है। यह तिथिव्रत है, वरुण इसके देवता है। एक मण्डल में वरुण की आकृति खींची जाय, समस्त वर्गों के लोग तथा महिलाएँ अर्घ्य दें, फल-फूल, समस्त धान्य तथा दधि से मध्याह्न काल में पूजन हो। इस व्रत के आचरण से व्रती समस्त पापों से मुक्त होकर सौभाग्य प्राप्त करता है। पाश-(१) पाशुपत शैव दर्शन में तीन तत्त्व प्रमुख हैपति, पशु और पाश । पति स्वयं शिव हैं, पशु उनके द्वारा उत्पन्न किये हुए प्राणी हैं तथा पाश वह बन्धन है जिससे जीव (पशु) सांसारिकता में बँधा हुआ है ।
(२) ऋग्वेद तथा परवर्ती साहित्य में इसका अर्थ रस्सी है, जिसे बाँधने या कसने के काम में लाया जाता है। रस्सी तथा ग्रन्थि का उल्लेख एक साथ अथर्ववेद (९.३,२) में आया है । पाश का उल्लेख शत० वा० में मनु की नाव से बँधने वाली रस्सी के लिए हुआ है। वैदिक मन्त्रों में इसे वरुणपाश कहा गया है। पाशुपत-पाशुपत सम्प्रदाय शैव धर्म की एक शाखा है। सम्पूर्ण जैव जगत् के स्वामी के रूप में शिव की कल्पना इसकी विशेषता है। यह कहना कठिन है कि सगुण उपासना का नैव रूप अधिक प्राचीन है अथवा वैष्णव । विष्णु एवं रुद्र दोनों वैदिक देवता हैं। परन्तु दशोपनिषदों में परवा का तादात्म्य विष्णु के साथ दिखाई पड़ता है। श्वेताश्वतर उपनिषद् में यह तादात्म्य शङ्कर के साथ पाया जाता है। भगवद्गीता में भी "रुद्राणां शङ्करश्चास्मि' वचन है। यह निर्विवाद है कि वेदों से ही परमेश्वर के रूप में शङ्कर की उपासना प्रारम्भ हुई। यजुर्वेद में रुद्र की विशेष स्तुति है। यह यज्ञसम्बन्धी वेद है और यह मान्यता है कि क्षत्रियों में इस वेद का आदर विशेष है। धनुर्वेद यजुर्वेद का उपाङ्ग है। श्वेताश्वतर उपनिषद् कृष्ण यजुर्वेद की है। अर्थात् यह स्पष्ट है कि क्षत्रियों में यजुर्वेद और शङ्कर की विशेष उपासना प्रचलित है। इसके अतिरिक्त यह भी ध्यान देने योग्य है कि क्षत्रिय युद्धादि कठोर कर्म किया करते थे, इस कारण उनमें शङ्कर की भक्ति रूढ़ हो गयी। महाभारत काल में पाञ्चरात्र के समान तत्त्वज्ञान में भी पाशुपत मत को प्रमुख स्थान मिल गया।
पाशुपत तत्त्वज्ञान शान्तिपर्व के २४९वें अध्याय में वर्णित है। महाभारत में विष्णु की स्तुति के वाद बहुधा
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