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पाण्डुकेश्वर-पारस्करगृह्यसूत्र
३९५ दर्शन का कोई मौलिक ग्रन्थ उपलब्ध नहीं होता। र्षण, प्रद्युम्न तथा अनिरुद्ध के चरण धोये जाते हैं। कलशों संभवतः जिस प्रकार मीमांसा (विवेचन) को दार्शनिक रूप में कूप, निर्झर, सरोवर और सरिता का जल भरा जाना मिला उसी प्रकार व्याकरण की पद्धति को भी दर्शन का चाहिए । इस धार्मिक कृत्य से दुर्भाग्य, दारिद्रय, विघ्नरूप मिला होगा। किन्तु दर्शन के रूप में व्याकरण उतना बाधाएँ, रोग-शोक दूर होते हैं तथा यश एवं सन्तानादि विकसित नहीं हआ जितनी मीमांसा ।
की प्राप्ति होती है। पाण्डुकेश्वर-बदरीनाथधाम क्षेत्र में ध्यानवदरी से दो मील पापनाशिनी सप्तमी-शुक्ल पक्ष की सप्तमी तिष्य (पुष्य) दूर स्थित एक शिवमन्दिर । कहा जाता है कि यह मूर्ति नक्षत्र में पड़े तो वह बड़ी पवित्र होती है। उस दिन सूर्यमहाराज पाण्डु द्वारा स्थापित की गयी थी। पाण्डु कुन्ती
पूजन करना चाहिए। व्रती समस्त पापों से मुक्त होकर और माद्री अपनी दोनों रानियों के साथ यहाँ तपस्या
देवलोक को प्रस्थान करता है। हेमाद्रि के अनुसार यह करते थे । यहीं पाण्डवों का जन्म हुआ था।
योग श्रावण कृष्णपक्ष में पड़ता है। पातञ्जल योग-अष्टाङ्ग योग ही पातञ्जल योग कहलाता पापनाशिनी एकादशो-फाल्गुन मास में जब बृहस्पतिवार है। इसके आठ अङ्ग है-(१) यम (२) नियम (३) हो तथा सूर्य कुम्भ अथवा मीन राशि पर स्थित हो, तथा आसन (४) प्राणायाम (५) प्रत्याहार (६) धारणा एकादशी पुष्य नक्षत्र से युक्त हो तो वह पापनाशिनो (७) ध्यान और (८) समाधि । इसी का नाम राजयोग कहलाती है। है। इसमें विश्लेषण और ध्यान द्वारा चित्तवृत्तियों पापमोचनव्रत-ऐसा विश्वास है कि कोई व्यक्ति बिल्व वृक्ष का विषयों से निरोध किया जाता है। इसी आधार पर के नीचे बारह दिन तक निराहार बैठा रहे तो वह भ्रूणआगे चलकर कई योग-मार्गों हठयोग, लययोग आदि का
हत्या के पाप से मुक्त हो जाता है । इसके शिव देवता हैं। प्रवर्तन हुआ। दे० 'योगदर्शन'।
पारमार्थिक-शङ्कराचार्य के अनुसार सत्ता के चार भेद है : पातालव्रत-यह चैत्र कृष्ण प्रतिपदा को आरम्भ होता है। (१) मिथ्या अथवा अलीक, जिसके लिए केवल शब्द एक वर्ष तक इसका अनुष्ठान होता है । इसमें सप्त पातालों अथवा पद का प्रयोग मात्र होता है, किन्तु उसके समकक्ष (निम्न लोकों) के क्रमशः नाम लेते हए एक के पश्चात् पदार्थ नहीं है, जैसे आकाशकुसुम, शशविषाण, वन्ध्यापुत्र दूसरे की पूजा करनी चाहिए। रात में भोजन करने का आदि । (२) प्रातिभाषिक, जो भ्रम के कारण दूसरे के विधान है। वर्ष के अन्त में घर में दीप प्रज्वलित करके सदृश दिखाई पड़ने वाले पदार्थों में आरोपित है, किन्तु श्वेत वस्त्रों का दान करना चाहिए।
वास्तविक नहीं, जैसे रज्जुसर्प, शुक्तिरजत आदि । (३) पादुकासहस्र-वेदान्ताचार्य वेङ्कटनाथ रचित एक प्रार्थना । व्यावहारिक, जो संसार की सभी वस्तुओं में ठोस रूप से ग्रन्थ, जिसमें एक हजार पद्य है।
काम में आती है किन्तु तात्त्विक दृष्टि से अन्तिम विश्लेपादोदक-लिङ्गायतों के गुरु ( दीक्षागरु ) जब उनके घर षण में वास्तविक नहीं ठहरती है, धन-सम्पत्ति, पुत्र-कलत्र, आते हैं तब पादोदक नामक उत्सव होता है। इसमें गुरु समाज, राज्य, व्यापार आदि । (४) पारमार्थिक, जो के पाद (चरण) धोने की क्रिया होती है । कुटुम्ब के सभी प्रथम तीन से परे, आत्मा अथवा वस्तुसत्ता से सम्बन्ध लोगों, मित्र, परिवार वालों के साथ धर का प्रमुख व्यक्ति रखने वाली, ऐकान्तिक एवं अनिर्वचनीय है। वास्तव में गुरु के चरणों की षोडशोपचारपूर्वक पूजा करता है। फिर यही अद्वैत सत्ता है। चरणोदक का पान, सिर पर अभिषिञ्चन तथा घर में पारस्करगृह्यसूत्र-मुख्य तेरह गृह्यसूत्रों में पारस्कर गृह्यसूत्र छिड़काव होता है । दूसरे धार्मिक सम्प्रदायों में भी न्यूना- (अपर नाम कातीय गृह्यसूत्र) की गणना है। यह यजुर्वेधिक मात्रा में चरणोदक का महत्त्व है ।
दीय गृह्यसूत्र है। तीन काण्डों में इसका विभाजन हआ है। पादोदकस्नान-इस व्रत का अनुष्ठान उत्तराषाढ़ नक्षत्र में गृह्यसंस्कारों, वस्तुसंस्कारों तथा ऋतुयज्ञों का विस्तृत होता है। इसमें उपवास करने का विधान है। श्रवण वर्णन इसमें पाया जाता है । काशी संस्कृत सीरीज में कई नक्षत्र में भगवान् हरि के चरणों का स्नान कराने के बाद भाष्यों के साथ इसका प्रकाशन हुआ है, इसके प्रमुख भाष्य रजत, ताम्न अथवा मृत्तिका के चार कलशों में भगवान् संक- है--अमृत व्याख्या (ले० नन्द पण्डित), अर्थभास्कर (ले०
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