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परुष्णी-पर्वताष्टमीव्रत
हुए अपना समय ध्यान, शास्त्रचिन्तन, शिक्षण आदि में कहीं उल्लेख हुआ है । अतः इसका अर्थ प्रचलित पलाश व्यय करते हैं । ये वृक्षों के नीचे सोते तथा भिक्षा से (पत्र) की अपेक्षा पूर्वकाल का कोई वृक्ष होना चाहिये। भोजन प्राप्त करते हैं । परिव्राजक कब होना चाहिए, इस पर्णक-पुरुषमेध के बलिपदार्थों की सूची के अन्तर्गत यह सम्बन्ध में शास्त्रों में मतभेद है । साधारणतः ब्रह्मचर्य, व्यक्तिनाम वाजसनेयी संहिता तथा तैत्तिरीय ब्राह्मण में गार्हस्थ्य और वानप्रस्थ आश्रम क्रमशः पूरा करने के उल्लिखित है। महीधर के अनुसार इससे भिल्ल का बोध पश्चात परिव्राजक होने का विधान है। किन्तु उपनिषद् होता है । सायण के मतानुसार इससे मछली पकड़ने वाले काल से ही उत्कट वैराग्य वाले व्यक्ति के लिए यह प्रति- ऐसे व्यक्ति का बोध होता है, जो पानी पर एक पर्ण बन्ध नहीं था। उसके लिए विकल्प था :
(विषसहित पत्ता) रखकर मछलियाँ पकड़ता है। किन्तु यदहरेव विरजेत् तदहरेव परिव्रजेत् ।
यह केवल शाब्दिक अटकलबाजी है। वेबर के मतानुसार [ जिस दिन वैराग्य हो, उसी दिन परिवाजक हो जाना
इसका अर्थ पंख धारण करने वाला एक जंगली जीव है, चाहिए।]
किन्तु यह अर्थ भी अनिश्चित है।
पर्णय-ऋग्वेद की दो ऋचाओं (१.४३.८;१०.४८.२) में परुष्णी-रावी नदी का यह वैदिक नाम है। नदीस्तुति
उद्धृत यह या तो किसी नायक का नाम है, जैसा कि (ऋग्वेद, १०.७५.५) तथा सूदास की विजय गाथा में
लुविग सोचते हैं, अथवा दानव का, जो इन्द्र द्वारा परुष्णी नदी का उल्लेख है । यह नहीं कहा जा सकता
विजित हुआ। कि सुदास की विजय में इसका क्या योग था, किन्तु
पर्यङ्क-कौषीतकि उपनिषद् (१.५) में ब्रह्मा के आसन अधिकांश विद्वानों का मत है कि शत्र इसके प्रवाह की
का नाम पर्यङ्क है । यह सम्भवतः दूसरे स्थानों पर प्रयुक्त दिशा बदलने के प्रयत्न में इसकी तेज धारा में बह
आसन्दी के अर्थ में प्रयुक्त हुआ है। इसका अर्थ शय्या गये । ऋग्वेद के आठवें मण्डल (८.७४.१५) में इसे
नहीं है, जैसा कि उपनिषद् में प्रयुक्त है। सिंहासन के महानद कहा गया है। आगे चलकर इस नदी का नाम
अर्थ में भी इसका प्रयोग हुआ है। इरावती (रावी) पड़ा, जिसका उल्लेख यास्क ने किया
पर्वत-ऋग्वेद तथा अथर्ववेद में पर्वत का गिरि के अर्थ है। पिशेल के मतानुसार 'परुष्णी' शब्द का ऊर्णा (ऊन)
में प्रयोग हुआ है। संहिताओं में पर्वतों के पंखों का से सम्बन्ध है। उनका कहना है कि इसका नाम पुरुष +
काल्पनिक वर्णन है । कौषीतकि उपनिषद् में दक्षिणी तथा ऊर्णा से गठित हुआ है ।
उत्तरी पर्वतों के नामोल्लेख हैं, जिनसे स्पष्टतः हिमालय पर्जन्य-यह एक वैदिक देवता का नाम है। ऋग्वेदीय
एवं विन्ध्य पर्वतों का बोध होता है । अथर्ववेद में पर्वतों देवताओं को तीन भागों में बाँटा गया है : पार्थिव,
पर ओषधि एवं अञ्जन की उत्पत्ति का उल्लेख है। वायवीय एवं स्वर्गीय । वायवीय देवों में पर्जन्य की
पर्वतशिष्यपरम्परा---शङ्कराचार्य से संन्यासियों का दसनामी गणना होती है। प्रोफेसर स्] डर के मत से सातवें
सम्प्रदाय प्रचलित हुआ। उनके चार प्रमुख शिष्य थे और आदित्य का नाम पर्जन्य है, जो पहले द्यौ का ही एक
उन चारों के कुल मिलाकर दस शिष्य हुए । इन दसों के विरुद था । पर्जन्य भी द्यौ एवं वरुण के सदृश वृष्टिदाता
नाम से संन्यासियों के दस भेद हो गये । शङ्कराचार्य ने है। ऋग्वेद (५.८३) में पर्जन्य सम्बन्धी ऋचाएं ठीक
चार मठ भी स्थापित किये थे, जिनके अधीन इन प्रशिष्यों उसी प्रकार की हैं जैसी मित्रावरुण अथवा वरुण के ..
की शिष्यपरम्परा चली आती है । जोशीमठ के संन्यासी सम्बन्ध की।
'पर्वत' उपाधि धारण करते हैं। पर्ण-ऋग्वेद (१०.९७.५) में इसका उल्लेख अश्वत्थ के पर्वताष्टमीव्रत---चैत्र शुक्ल अष्टमी के दिन पर्वतों-हिमसाथ तथा अथर्ववेद (५.५.५) में अश्वत्थ एवं न्यग्रोध के वान्, हेमकूट, निषध, नील, श्वेत, शृंगवान्, मेरु, माल्यसाथ हुआ है। इसकी लकड़ो से यज्ञ की स्थालियों के वान्, गन्धमादन पर्वतों तथा किम्पुरुषवर्ष एवं उत्तर कुरु ढक्कन, यज्ञ के अन्य उपादान जुह या यज्ञस्तम्भ तथा की पूजा करनी चाहिए। चैत्र शुक्ल नवमी को उपवास स्रुव बनते थे। इसके छिलके (पर्णवल्क) का भी कहीं- करना चाहिए । एक वर्ष तक यह अनुष्ठान चलता है।
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