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परिकरविजय-परिव्राजक
इसके प्रथम अध्याय में स्मृतियों (उन्नीस) की गणना की हैं। उनकी शिष्यपरम्परा का भी अच्छा साहित्य है। गयी है और कहा गया है कि मनु, गौतम, शंख-लिखित इनके अनुयायी वैष्णव हैं और गुजरात, राजस्थान, बुन्देलतथा पराशर स्मृतियाँ क्रमशः सत्ययुग, त्रेता, द्वापर तथा खण्ड में अधिक पाये जाते हैं । दे० 'प्राणनाथ' । कलियुग के लिए प्रणीत हुई है।
परिधिनिर्माण–परिधि का उल्लेख ऋग्वेद (पुरुषसूक्त) में परिकरविजय-यह दोहयाचार्य कृत एक ग्रन्थ है।
पाया जाता है : “सप्तास्यासन् परिधयः" । परिक्रमा-संमान्य स्थान या व्यक्ति के चारों ओर उसकी ईश्वर ने एक-एक लोक के चारों ओर सात-सात दाहिनी तरफ से घूमना। इसको प्रदक्षिणा करना भी परिधियाँ ऊपर-ऊपर रची हैं ।] गोल वस्तु के चारों ओर कहते हैं जो षोडशोपचार पूजा का एक अंग है । प्रायः एक सूत के नाप का जितना परिमाण होता है उसको सोमवती अमावस को महिलाएं पीपल वृक्ष की १०८ परिधि कहते हैं । ब्रह्माण्ड में जितने लोक हैं, ईश्वर ने परिक्रमा करती है। इसी प्रकार दुर्गा वी की परिक्रमा उनमें एक-एक के ऊपर सात-सात आवरण बनाये हैं । एक की जाती है । पवित्र धर्मस्थानों, अयोध्या, मथुरा आदि समुद्र, दूसरा बसरेणु, तीसरा मेघमण्डल का वायु, चौथा पुण्यपरियों की परिक्रमा कार्तिक में समारोह से की जाती
वृष्टिजल, पाँचवाँ वृष्टिजल के ऊपर का वायु, छठा है । काशी की पंचक्रोशो (२५ कोस की), व्रज में गोवर्धन
अत्यन्त सूक्ष्म वायु जिसे धनञ्जय कहते हैं और सातवाँ पर्वत की सप्तकोशी, व्रजमंडल की चौरासी कोसी, नर्मदा
सूत्रात्मा वायु जो धनञ्जय से भी सूक्ष्म है। ये सात जी की अमरकंटक से समुद्र तक छःमासी और समस्त परिधियाँ कहलाती है। भारतखण्ड की वर्षों में पूरी होने वाली इस प्रकार की परिभाषा--(१) किसी भी वैदिक यज्ञक्रिया को समझने विविध परिक्रमाएँ धार्मिकों में प्रचलित हैं। ब्रजभूमि में के लिए तीनों श्रौतसूत्रों के (जो तीनों वेदों पर अलग'डण्डौती' परिक्रमा भूमि में पद-पद पर दण्डवत् लेटकर अलग आधारित है) कर्मकाण्ड वाले अंश का अध्ययन वेदपूरी की जाती है । यही १०८-१०८ वार प्रति पद पर। विद्यार्थी के लिए आवश्यक होता था। इस कार्य के लिए आवृत्ति करके वर्षों में समाप्त होती है।
कुछ और ग्रन्थ रचे गये थे, जिन्हें परिभाषा कहते हैं। परिणामवाद-परिणाम का शाब्दिक अर्थ है परिणति, इन परिभाषा ग्रन्थों में यह दिखाया गया है कि किस फलन, विकार अथवा परिवर्तन । जगत रचना के सम्बन्ध प्रकार तीनों वेदों के मत का किसी यज्ञ विशेष के लिए में सांख्य दर्शन परिणामवाद को मानता है। इसके अनु- उचित रूप से प्रयोग किया जाय । सार सृष्टि का विकास उत्तरोत्तर विकार या परिणाम (२) पाणिनीय सूत्रों पर आधारित व्याकरण शास्त्र द्वारा अव्यक्त प्रकृति से स्वयं होता है। कार्य कारण में का एक व्यवस्थित नियमप्रयोजक ग्रन्थ परिभाषा अन्तनिहित रहता है, जो अनुकूल परिस्थिति आने पर कहलाता है। व्यक्त हो जाता है। यह सिद्धान्त न्याय के 'प्रारम्भवाद' परिभाषेन्दुशेखर-यह पाणिनीय सूत्रों पर आधारित व्याक अथवा वेदान्त के 'विवर्तवाद' से भिन्न है।
रणशास्त्र के परिभाषा भाग के ऊपर नागेश भट्ट को एक परिणामी सम्प्रदाय वैष्णवों का एक उप सम्प्रदाय रचना है । 'परिणामी' अथवा 'प्रणामी' है। इसके प्रवर्तक महात्मा परिमल-शांकर भाष्य का उपव्याख्या ग्रन्थ । इसकी प्राणनाथजी परिणामवादी वेदान्ती थे। ये विशेषतः पन्ना रचता अप्पय दीक्षित ने स्वामी नसिंहाथम की प्रेरणा (बुन्देलखण्ड) में रहते थे। महाराज छत्रसाल इन्हें अपना से की । ब्रह्मसूत्र के ऊपर शाङ्कर भाष्य की व्याख्या गुरु मानते थे। ये अपने को मुसलमानों का मेंहदी, भामती' है, भामती की टीका 'कल्पतरु' है और कल्पतरु ईसाइयों का मसीहा और हिन्दुओं का कल्कि अवतार की व्याख्या 'परिमल' है। कहते थे । इन्होंने मुसलमानों से शास्त्रार्थ भी किये । परिव्राजक-इसका शाब्दिक अर्थ सब कुछ त्यागकर परिसर्वधर्मसमन्वय इनका लक्ष्य था। इनका मत निम्बाकियों भ्रमण करने वाला है। परिव्राजक चारों ओर भ्रमण जैसा था। ये गोलोकवासी श्री कृष्ण के साथ सख्य-भाव करने वाले संन्यासियों (साध-संतों) को कहते है। ये रखने को शिक्षा देते थे। प्राणनाथजी की रचनाएँ अनेक संसार से विरक्त तथा सामाजिक नियमों से अलग रहते
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