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पर्व-पवित्रारोपणवत
वर्ष के अन्त में चांदी का दान करने का विधान है। दे० (वहने वाला) है, जो शोधक अर्थ में प्रयुक्त हुआ है। इसका विष्णुधर्म०, ३.१७४.१-७ ।
शाब्दिक अर्थ है 'प्रवहमान' (शुद्ध होने या करने वाला)। पर्व-गन्ना, सरकण्डा, जुआर आदि के पौधों की गाँठों को पवित्र-कुश घास का बटा हुआ छल्ला, जो धार्मिक अनुष्ठान पर्व कहते हैं। इसका एक अर्थ शरीरस्थित मेरुदण्ड के समय अनामिका अँगुली में धारण किया जाता है। (रीढ़) का पोर भी होता है। काल के विभाजक ग्रहों की इसके द्वारा यज्ञ करने वाले तथा यज्ञीय सामग्री पर जल स्थिति भी इसका अर्थ है, यथा अमावस्या, पूर्णिमा, से अभिविञ्चन किया जाता है । सोना, चाँदी, ताँबा मिलासंक्रान्ति, अयनारम्भ । इसी आधार पर साममन्त्रों के कर बनाया गया छल्ला भी पवित्र कहलाता है। वस्त्र गीतिविभाग तथा महाभारत के कथाविभाग भी पर्व या ऊँन का छल्ला भी पवित्र कहा जाता है : 'पूतं पविकहलाते हैं।
त्रेण इव आज्यम् ।' विशेष तिथियाँ. जयन्तियाँ, चतर्दशी. अष्टमी. एका- पवित्रारोपणवत-इस व्रत में किसी देवप्रतिमा को पवित्र दशी, चन्द्रग्रहण, सूर्यग्रहण आदि भी पर्व कहलाते हैं। सूत्र अथवा जनेऊ पहनाना होता है। हेमाद्रि (चतुर्वर्गपर्व के दिन तीर्थयात्रा, दान, उपवास, जप, श्राद्ध, भोज,
चिन्तामणि २.४४०-४५३ ) और ईशानशिवगुरुदेवपद्धति उत्सव, मेला आदि होते हैं। मधु-मांसादि के सेवन का उस
आदि विस्तार से इसका उल्लेख करते हैं । पवित्रारोपण दिन निषेध है। हिन्दू, चाहे किसी पन्थ या सम्प्रदाय के
उन त्रुटियों तथा दोषों के परिमार्जनार्थ है जो समयक्यों न हों, पर्व मनाते और तीर्थयात्रा करते हैं।
असमय पूजा तथा अन्य धार्मिक कृत्यों में होते रहते हैं। पर्वभूभोजनव्रत-इस व्रत में पर्व के दिनों में खाली भूमि
यदि प्रति वर्ष इस व्रत का आचरण न किया जाय तो उन पर भोजन किया जाता है । शिव इसके देवता हैं । इससे
सब संकल्पों तथा कामनाओं की सिद्धि नहीं होती जो अतिरात्र यज्ञ के फलों को उपलब्धि होती है ।
व्रती को अभीष्ट है। यदि भिन्न-भिन्न देवों को पवित्र
सूत्र पहनाना हो तो तिथियाँ भी भिन्न भिन्न होनी पलाल-अथर्ववेद (८.६.२) में इस का प्रयोग अनु-पलाल
चाहिए । भगवान् वासुदेव को सूत्र पहनाने के लिए के साथ हुआ है । इस शब्द का अर्थ पुवाल है । इसके स्त्री
श्रावण शक्ल द्वादशी सर्वोत्तम है । भिन्न-भिन्न देवगण का लिङ्ग रूप ‘पलाली' का उल्लेख अथर्ववेद (२८.२) में
पवित्रारोपण निम्नोक्त तिथियों में करना चाहिए : प्रतिपदा जौ के भूसा के अर्थ में हुआ है। धार्मिक कृत्यों के लिए
को कुबेर, द्वितीया को तीनों देव, तृतीया को भवानी, पलाल से मण्डप तैयार किया जाता है । सामान्यतः बाली
चतुर्थी को गणेश, पंचमी को चन्द्रमा, षष्ठी को कार्तिकेय, रहित धान के सूखे पौधे को पलाल कहते हैं ।
सप्तमी को सूर्य, अष्टमी को दुर्गाजी, नवमी को मातृपवन-पवन (पवित्र करने वाला) का प्रयोग अथर्ववेद में ।
देवता, दशमी को वासुकि, एकादशी को ऋषिगण, अन्न के दानों को उसके छिलके से अलग करने के सहा
द्वादशी को विष्णु, त्रयोदशी को कामदेव, चतुर्दशी को यक छलनी या सूप के अर्थ में हुआ है । गतिशील वायु के
शिवजी, और पूर्णिमा को ब्रह्मा । अर्थ में यह शब्द रूढ़ हो गया है।
शिवजी को पवित्र धागा पहनाने की सर्वोत्तम तिथि है पवनव्रत-साठ व्रतों में यह भी है। माघ मास में इसका आश्विन मास के कृष्ण अथवा शुक्ल पक्ष की अष्टमी या अनुष्ठान होता है। व्रती को इस दिन गीले वस्त्र धारण चतुर्दशी; मध्यम तिथि है श्रावण मास की तथा अधम है करना तथा एक गौ का दान करना चाहिए। इससे व्रती भाद्रपद की । मुमुक्षुओं को सर्वदा कृष्ण पक्ष में ही पवित्राएक कल्प तक स्वर्ग में वास करने के बाद राजा होता। रोपण करना चाहिए। सामान्य जन शुक्ल पक्ष में यह व्रत है । माघ बहुत ही ठण्डा मास है। यह एक प्रकार का कर सकते हैं। पवित्रसूत्र सुवर्ण, रजत, ताम्न, रेशम, कमलशीतसह तप है।
नाल, दर्भ अथवा रुई के बने हों जिन्हें ब्राह्मण कन्याएँ पवमान-ऋग्वेद में इस शब्द का प्रयोग सोम के लिए हुआ कातें तथा काटकर बनायें। क्षत्रिय, वैश्य कन्याएँ (मध्यम) है जो स्वतः चलनी के मध्य से छनकर विशुद्ध होता है। अथवा शूद्र कन्याएँ ( अधम कोटि के सूत्र ) भी बना पश्चात अन्य संहिताओं के उल्लेखों में इसका अर्थ वायु
उल्लेखा में इसका अर्थ वायु सकती हैं।
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