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परमहंसपरिव्राजकोपनिषत्-परशुराम वैराग्य और ज्ञान की उत्तरोत्तर तीव्रता के कारण यह परमानन्द सरस्वती-ब्रह्मानन्द सरस्वती के दीक्षागुरु परश्रेणीविभाजन किया गया है। परमहंस कोटि का संन्यासी मानन्द सरस्वती थे । सत्रहवीं शताब्दी के आसपास इनका सर्वश्रेष्ठ होता है।
प्रादुर्भाव हुआ था। हंस शब्द सदसद्-विवेक की शक्ति से परिपूर्ण आत्मा परमार्थसार-प्रत्यभिज्ञा सिद्धान्त का यह संक्षिप्त सार है। का बोधक है । जिस पुरुष में आत्मा का परम विकास हो इसकी रचना ग्यारहवीं शती में कश्मीर के आचार्य अभिचुका है वह 'परमहंस' कहलाता है।
नव गुप्त ने की थी। परमहंसपरिवाजकोपनिषद्-यह संन्यासाश्रम सम्बन्धी एक
परमेश्वर आगम-यह रौद्रिक आगम है । 'मतङ्ग' इसका परवर्ती उपनिषद् है।
उपागम है। परमहंसोपनिषद्-संन्यास आश्रम से सम्बन्धित एक उप- परमेश्वरतन्त्र-शाक्त साहित्य में तन्त्रों का स्थान बड़ा निषद् । संन्यासी को परमहंस भी कहते हैं इसलिए इसमें महत्त्वपूर्ण है। परमेश्वरतन्त्र लगभग ९०८ वि० की संन्यासाश्रम में प्रवेश के पूर्व की तैयारी, संन्यासी की रचना है। वेषभूषा, आवश्यकता, भोजन, निवास स्थान तथा कार्य परलोक-मानव जीवन के दो पक्ष है-इहलोक अथवा आदि का वर्णन है।
सांसारिक जीवन और परलोक अथवा पारमार्थिक परमाणु-वैशेषिक मतानुसार द्रव्य नौ हैं। इनमें से प्रथम जीवन । परलोक अथवा परमार्थ व्यावहारिक जगत् से भिन्न चार परमाणु के ही विभिन्न रूप हैं। प्रत्येक परमाणु परि- है। कुछ लोग स्वर्ग को ही परलोक कहते हैं। वास्तव में वर्तनहीन, शाश्वत, अतिसूक्ष्म तथा अदर्शनीय होता लोक की कल्पना स्थानीय है, जो स्तर भेद दिखाने के है । परमाणु गंध, स्वाद, प्रकाश एवं उष्णता (पृथ्वी, जल, लिए की गयी है। व्यक्तिगत लाभ-हानि की चिन्ता छोड़वाय, अग्नि के प्रतिनिधि स्वरूप) के अनुसार चार कक्षाओं कर समष्टिगत जीवन के कल्याण के लिए कार्य करना ही में बँट जाते हैं। दो परमाणुओं के मिलने से एक द्वघणुक परमार्थ (बड़ा लाभ) है। तथा तीन द्वयणकों के मिलने से एक त्रसरेणु बनता है जो परबतिया गुसांई-परबतिया गसाँई कामाख्या देवी के प्रधान वस्तु की सबसे छोटी इकाई है, जिसका आकार गुणयुक्त पुजारी को कहते हैं । यह नदिया (नवद्वीप) का निवासी होता है तथा जिसे पदार्थ कहते हैं ।
बंगाली ब्राह्मण होता है। परमात्मा-वैशेषिक मतानुसार नित्य ज्ञान, नित्य इच्छा परशुराम-विष्णु के दस अवतारों में से छठा अवतार, जो और नित्य संकल्प वाला, सर्वसुष्टि को चलाने वाला
वामन एवं रामचन्द्र के मध्य में गिना जाता है। परशु परमात्मा जीवात्मा से भिन्न है। अर्थात् परमात्मा और (फरसा) नामक शस्त्र धारण करने के कारण ये परशुराम जीवात्मा के भेद से आत्मा दो प्रकार का है। परमात्मा एक कहलाते हैं । जमदग्नि के पुत्र होने के कारण ये जामदग्न्य है, जीवात्मा अगणित हैं। परमात्मा जैसे पहले कल्प में भी कहे जाते हैं। इन्होंने राजा सहस्रार्जन कार्तवीर्य का सृष्टि रचता है वैसे ही इस कल्प में पृथिवी, स्वर्ग और वध किया था। परम्परा के अनुसार इन्होंने क्षत्रियों का अन्तरिक्ष को रचता है। इससे सृष्टिकर्ता ईश्वर नित्य अनेक बार विनाश किया। इनका जन्म अक्षय तृतीया सिद्ध होता है । वैशेषिक मत में जीवात्मा और परमात्मा ( वैशाख शुक्ल तृतीया ) को हुआ था । अतः इस दिन व्रत दोनों अनात्मपदार्थों से अलग है, यह मनन से सिद्ध करने और उत्सव मनाने की प्रथा है । होता है।
इस अवतार के प्रसङ्ग में ब्रह्म-क्षत्रसंघर्ष की चर्चा सांख्य दर्शन परमात्मा अथवा ईश्वर में विश्वास नहीं आती है। यह मान्यता कि परशुराम ने इक्कीस बार पृथ्वी करता; केवल बह पुरुषबहुत्व को मानता है। योगदर्शन को क्षत्रियविहीन किया था, अतिरंजित जान पड़ती है। ईश्वर को आदि गुरु मानता है। वेदान्त के अनुसार पर- संसार की स्थिति एवं ब्रह्माण्डप्रकृति के अनुसार धर्म की मात्मा व्यवहार में भिन्न किन्तु वस्तुतः अभिन्न है। रक्षा तभी संभव है जब ब्रह्म और क्षत्र दोनों ही शक्तियाँ परमानन्द उपपुराण-यह उन्नीस उपपुराणों में से एक है। समता की भावना से परिपूर्ण रहें।
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