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नागरसेन- नाथमुनि
इससे विषों से मुक्ति तो होती ही है, साथ ही पुत्र, पत्नी तथा सौभाग्य की भी उपलब्धि होती हैं। नागरसेन – एक देवविशेष का नाम उत्तर प्रदेश में काछी
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एक कृषक जाति है । ये मुख्यतः शाक्त होते हैं तथा दुर्गा के शीतला रूप की पूजा करते हैं । ये कुछ छोटे देवताओं की भी उपासना करते हैं, जो विपत्तियों से रक्षा करने तथा उनकी खेती को बढ़ाने वाले माने जाते हैं । ऐसे ही उनके छोटे देवों में से एक देवता 'नागरसेन' है यह बीमारियों का नियन्त्रण करता है । इसका सम्बन्ध भी नाग से ही जान पड़ता है ।
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नागा - यह संस्कृत 'नग्न' का तद्भव रूप है । प्राचीन अवधूत मुनि कपिल, दत्तात्रेय ऋषभदेव आदि के आदर्श पर चलनेवाले चतुर्थाश्रमी साधु-संत, जो त्याग की पराकाष्ठा के अनुरूप वस्त्र तक धारण नहीं करते, नागा कहे जाते हैं । मध्यकाल में अपनी परम्परा के रक्षार्थ ऐसे साधु 'जमात' के रूप में संगठित हो गये और इनके शस्त्रधारी दल बन गये, जो अपने मठ-मन्दिरों के रक्षार्थ खूनी संघर्ष से भी विमुख न होते थे। आगे चलकर ये लोग शैव-वैष्णव के रूप में स्ववर्ग के ही परस्पर शत्रु हो गये । अविवेकवश इनके पिछले युग में मराठा, निजाम, राजपूत, अवध के नवाब आदि के पक्ष से युद्धव्यवसायी के रूप में लड़ते हुए राजनीतिक पाशा पलट देते थे ।
आजकल नागा साधु वसनामो गुसांई, वैरागी, दादूपंथी आदि जमातों के अन्तर्गत रहते हैं और हरिद्वार, प्रयाग आदि के कुम्भमेलों में हाथी, घोड़े, छत्र, चमर, ध्वजा आदि से सज्जित होकर अपने राजसी अभियान का प्रदर्शन करते हैं ।
नागा साधु दे० 'नागा' ।
नागेश - नागेश भट्ट सत्रहवीं शताब्दी में हुए थे । ये शब्दाद्वैत के कट्टर प्रतिपादक हैं । इस सिद्धान्त का सर्वाङ्गीण विवेचन इन्होंने अपने ग्रन्थ ' वैयाकरणसिद्धान्तमंजूषा' में किया है । ये व्याकरण के उद्भट विद्वान् होते हुए साहित्य, दर्शन, धर्मशास्त्र, मन्त्रशास्त्र आदि के भी विचक्षण ग्रन्थकार थे। पतञ्जलि के महाभाष्य और भट्टोजि दीक्षित को सिद्धान्तकौमुदी पर रची गयी इनकी व्याख्याएँ गम्भीरता के कारण मौलिक ग्रन्थ जैसी ही मानी जाती हैं ।
नागेश, उपनाम नागोजी भट्ट काले महाराष्ट्रीय थे और शास्त्रचिन्तन में निमग्न रहने के कारण काशी से बाहर
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न जाने का नियम ग्रहण किये हुए थे। इनको इस बीच जयपुर नरेश महाराज सवाई जयसिंह ने अपने अश्वमेध यज्ञ के अग्रपण्डित के रूप में आमन्त्रित किया था, किन्तु इन्होंने इस संमान्य आतिथ्य को 'क्षेत्रसंन्यास' के कारण अस्वीकार कर दिया ।
नागेश्वर- काशी में शिव महादेव की पूजा 'नागेश्वर' के रूप में भी होती है। सर्प उनकी मूर्ति में लिपटे दिखाये जाते हैं ।
नाथदेव – सर्वप्रथम वेदान्ती भाष्यकार विष्णुस्वामी शुद्धाद्वैतवाद का प्रचार किया। उनके शिष्य का नाम ज्ञानदेव था। ज्ञानदेव के शिष्य नाथदेव और त्रिलो चन थे ।
नाथद्वारा - मेवाड़ (राजस्थान) का प्रसिद्ध वैष्णव तीर्थ । यहां का मुख्य मन्दिर श्रीनाथजी का है। यह वल्लभ सम्प्रदाय का प्रधान पीठ है । भारत के प्रमुख वैष्णव पीठों में इसकी भी गणना है । श्रीनाथजी के मन्दिर के आसपास ही नवनीतलालजी विट्ठलनाथजी, कल्याणरायजी, मदनमोहनजी और वनमालीजी के मन्दिर तथा महाप्रभु हरिरायजी की बैठक है । एक मन्दिर मीराबाई का भी है। श्रीनाथजी के मन्दिर में हस्तलिखित एवं मुद्रित ग्रन्थों का सुन्दर पुस्तकालय भी है । नाथद्वारा पीठ का एक विद्याविभाग भी है, जहाँ से सम्प्रदाय के प्रन्थों का प्रकाशन होता है ।
नायमुनि (वैष्णवाचार्य) - विशिष्टाद्वैत सम्प्रदाय के आचायाँ की परम्परा का क्रम इस प्रकार माना जाता है - भगवान् श्री नारायण ने जगज्जननी श्री महालक्ष्मी को उपदेश दिया, दयामयी माता से वैकुण्ठपार्षद विष्वक्सेन को उपदेश मिला, उनसे शठकोप स्वामी को उनसे नावमुनि को, नाथमुनि से पुण्डरीकाक्ष स्वामी को इनसे राममित्र को और राममिश्र से यामुनाचार्य को यह उपदेश प्राप्त हुआ ।
'नाथमुनि' श्रीवैष्णव सम्प्रदाय के प्रसिद्ध आचार्य हो गये हैं । ये लगभग ९६५ विक्रमाब्द में वर्तमान थे । इनके पुत्र ईश्वरमुनि छोटी अवस्था में ही परलोक सिधार गये। ईश्वरमुनि के पुत्र यामुनाचार्य थे। पुत्र की मृत्यु के बाद नाथमुनि ने संन्यास ले लिया और मुनियों की तरह विरक्त जीवन बिताने लगे। इसी कारण इनका नाम नाथमुनि पड़ा । कहते हैं कि उन्होंने योग में अद्भुत
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