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नामद्वादशी-नागवत
उनके पश्चात् सन्त नागदेव भट्ट हुए जो यादवराज राम- और अपने-अपने करतब दिखाते हैं। नागपञ्चमी के दिन चन्द्र और सन्त ज्ञानेश्वर के समकालीन थे । यादवराज नागपूजा ही यद्यपि इस त्योहार की मुख्यता है, तथापि रामचन्द्र का समय संवत् १३२८-१३६३ है। सन्त नाग- कुश्ती और मल्लों के खेल विशेष आकर्षण रखते हैं। देव भट्ट ने इस पन्थ का अच्छा प्रचार किया था। लड़कियाँ गुड़िया का खेल भी करती हैं और उनका किसी नामद्वादशी-मार्गशीर्ष शुक्ल द्वादशी को इस व्रत का सरोवर अथवा नदी में प्रवाह कर देती है।
अनुष्ठान होता है। इस दिन उपवास करना चाहिए। नागपूजा-मार्गशीर्ष शुक्ल पञ्चमी को इस पूजा का अनुष्ठान यह तिथिव्रत है । व्रती को विष्णु भगवान् के बारह नामों होता है । स्मृतिकौस्तुभ (४२९) के अनुसार यह पूजा में से एक नाम लेना चाहिए, यथा नारायण नाम मार्ग- दाक्षिणात्यों में विशेष रूप से प्रचलित है। शीर्ष तथा पौष में, माधव नाम माघ में; इसी प्रकार से नागमैत्रीपञ्चमी-इस तिथि के व्रतकर्ता को कडुए तथा खट्टे कार्तिक तक दामोदर नाम । वर्ष के अन्त में बछड़े वाली पदार्थों का सेवन छोड़ देना चाहिए तथा नागप्रतिमाओं गौ, चन्दन, वस्त्रों आदि को दान में देना चाहिए। को दूध में स्नान कराना चाहिए। इस अनुष्ठान से नागों विश्वास किया जाता है कि इसके अनुष्ठान से व्रती विष्णु- से उसकी मैत्री हो जाती है। लोक को जाता है।
नागवंशी-मध्य प्रदेश के मुआसी तथा नागवंशी अपने को नागनाथ-साथ सम्प्रदाय के नौ नाथों में से नागनाथ भी सर्पपूर्वजों के वंशज मानते हैं । बम्बई के नापित (नाऊ) एक हैं। इनके सम्बन्ध में ऐतिहासिक रूप से कुछ विशेष अपने को शेष (अनन्त, शेष) का वंशज बतलाते हैं। ज्ञात नहीं है।
निमाड़ जिले के कुछ नागर ब्राह्मण अपने को ब्राह्मण पिता नागपञ्चमी-सर्पपूजा के त्योहारों में नागपञ्चमी सबसे प्रमुख तथा नाग माता से उत्पन्न मानते हैं । इसी कारण कुछ है। दक्षिण भारत में इसे 'नागरपञ्चमो' कहते हैं। यह ब्राह्मण उनका पकाया हुआ भोजन नहीं खाते । ये ब्राह्मण त्योहार श्रावण शुक्ल पञ्चमी को मनाया जाता है। इसे वर्षा- अपनी स्त्रियों को 'नागकन्या' कहते हैं । बरमा में कुछ ऋतु में मनाये जाने का कारण नागों की वर्षा देने की शक्ति ऐसे लोग हैं जो अपने को सर्प के अण्डे से उत्पन्न बतलाते से सम्बन्धित प्रतीत होता है। दक्षिण भारत में इस दिन है । गन्धमाली लोग काले नाग को अपना पूर्वज मानते सर्पविवरों पर फूल, सुगन्ध आदि चढ़ाते हैं तथा दूध ढारते है और इसी कारण नागपञ्चमी पर्व को विशेष रूप से हैं । वृक्षों के नीचे स्थापित नागमूर्तियों के दर्शन किये जाते मनाते है तथा उस दिन पका भोजन नहीं करते। मद्रास हैं । त्योहार के दिन इन मूर्तियों पर दूध, दही आदि चढ़ाया के वेल्लाल अपने को नागकन्या से उत्पन्न मानते हैं । जाता है । मध्यभारत में श्रावण मास के किसी विशेष ___छोटा नागपुर का शासक परिवार अपनी उत्पत्ति पुण्डरीक दिन एक पुरुष नागमन्दिर में जाकर वहाँ पिट्टा खाकर नाग से बतलाता है। इस प्रकार कई जातियाँ और वंश लौटता है। यदि ऐसा न किया जाय तो सारा परिवार अपने को नागवंशी कहते हैं और नागों की पूजा काले नागों से आक्रान्त किया जाता है, ऐसा विश्वास है। करते हैं। इस दिन घर की दीवारों पर नागचित्र अंकित कर उसकी नागवत-(१) कार्तिक शुक्ल चतुर्थी को इस व्रत का अनुपूजा होती है तथा घर की बुढ़िया इस पूजा के प्रारम्भ ष्ठान किया जाता है। इस दिन उपवास करना चाहिए। होने की कथा सुनाती है। उत्तर प्रदेश के पर्वतीय भागों शेष, शङ्खपाल तथा अन्यान्य नागों का पुष्प, चन्दन आदि में इस दिन शिव की पूजा 'रिखेश्वर' के रूप में की जाती से पूजन करना चाहिए। प्रातःकाल तथा मध्याह्न में दूध है । शिव को नागों से घिरा मानते हैं तथा उनके सिर पर से उनको स्नान कराना तथा दुग्ध पान कराना चाहिए। नागछत्र रहता है।
तत्पश्चात् उनका पूजन करना चाहिए। फल यह होता है __ इस दिन नाग की पूजा दूध-लाजा से होती है। इसका कि सर्प कभी हानि नहीं पहुँचाते । उद्देश्य यह होता है कि नाग अथवा सर्प सन्तुष्ट होकर (२) पञ्चमी को नागमूर्तियों का कमलपत्रों, मन्त्रों तथा किसी जीवधारी को काटे नहीं। यह दिन मल्लों का खास पुष्पों से पूजन करते हुए घी, दूध, दही, मधु की धाराओं त्योहार होता है। अखाड़ों में पहलवान इकट्ठे होते हैं को छोड़ना चाहिए । इसके पश्चात् होम करना चाहिए।
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