________________
नानकपुत्रा-नामकरण
कहते हैं, वैसे ही नानकपंथी भी कहते हैं । इनमें सिक्खों स्वत मनु के वंशज थे। परवर्ती संहिताओं एवं ब्राह्मणों की अपेक्षा विभेदवादी प्रवृत्ति बहुत कम है । ये गुरु नानक के अनुसार जब इनके पिता मनु ने अपनी सम्पत्ति पुत्रों में की मूल शिक्षाओं में विश्वास करते हैं।
बाँटी तो नाभानेदिष्ठ को छोड़ दिया तथा उन्हें आङ्गिनानकपुत्रा-एक धार्मिक सम्प्रदाय, जो 'उदासी' कहलाता रसों की गौओं को देकर शान्त किया। ब्राह्मणों में नाभाहै। इसके प्रवर्तक गुरु नानक के पुत्र श्रीचन्द्र थे इसीलिए नेदिष्ठ की ऋचाए बार-बार उद्धृत हैं, किन्तु इनसे इसके माननेवालों को 'नानकपुत्रा' भी कहते हैं। ये इनके रचयिता के बारे में कुछ भी ज्ञात नहीं होता। अपने को सनातनी हिन्दू समझते हैं और अपने को नानक- पुराणों में मानववंशी नाभानेदिष्ठ का अधिक विस्तृत वर्णन पंथ तथा सिक्ख धर्म से अलग मानते हैं ।
पाया जाता है। नानसम्बन्धर-प्राचीन तमिल शैव सन्त प्रायः कवि थे। नाभिकमलतीर्थ-यह थानेसर नगर के समीप है। कहा ये वैष्णव आलवारों के ही सदश शिव के भक्त थे । इनमें
जाता है कि इसी स्थान पर भगवान् विष्णु की नाभि के तीन अधिक प्रसिद्ध है। तीनों में से पहले का नाम नान
कमल से ब्रह्मा की उत्पत्ति हुई थी। यहाँ पर यात्री सम्बन्धर है। ये सातवीं शताब्दी में हुए। विशेष विवरण
स्नान, जप तथा विष्णु एवं ब्रह्मा का पूजन करके अनन्त 'तामिल शैव' शब्द में देखें। नानसम्बन्धर ने अनेक गीतों
फल के भागी होते हैं । सरोवर पक्का बना हुआ है तथा और स्तुतियों की रचना की है।
वहीं ब्रह्माजी सहित भगवान् विष्णु का छोटा सा नापित-इस शब्द का उल्लेख शतपथ ब्राह्मण (३.१,२,२) मन्दिर है। तथा कात्यायन श्रौत सूत्र (७.२,८,१३), आश्वलायन नाम-वैष्णव सम्प्रदाय की दीक्षा ग्रहण करने के लिए गुरु गृह्यसूत्र (१.१७) आदि में हुआ है। किन्तु प्राचीन शब्द का चुनाव करना पड़ता है। दीक्षा के अन्तर्गत पाँच कार्य वप्ता है (ऋ० १०.१४२,४) जो 'वप' से बना है, जिसका होते हैं-(१) ताप (शरीर पर साम्प्रदायिक चिह्नाङ्कन), अर्थ है 'क्षौर क्रिया करना' अथवा 'बाल काटना' । मृतकों (२) पुण्ड्र (साम्प्रदायिक चिह्न का तिलक), (३) नाम को जलाये जाने के पहले क्षौर क्रिया होती है (अथर्व वेद, (सम्प्रदाय सम्बन्धी नाम ग्रहण करना), (४) मन्त्र (भक्ति५.१९,४)। धार्मिक कृत्यों में नापित का मुख्य और विषयक सूत्ररूप भगवन्नाम ग्रहण करना) और (५) याग आवश्यक स्थान है। वह पुरोहित का एक प्रकार से (पूजा)। भक्तिमार्ग में जप करने के लिए नाम का अत्यसहायक होता है।
धिक महत्त्व है, विशेष कर कलियुग में । नाभाजी-नाभाजी की रचना 'भक्तमाल' अति प्रसिद्ध है। भगवान् के नाम की महिमा प्रायः सभी सम्प्रदायों में नाभाजी रामानन्दी वैष्णव थे और सन्त कवि अग्रदास के पायी जाती है। नाम और नामी में अन्तर न होने से शिष्य थे । उन्हीं की आज्ञा से नाभाजी ने भक्तमाल ग्रन्थ ईश्वर के किसी भी नाम से उसकी आराधना हो प्रस्तुत किया । नाभाजी उन दिनों हुए थे, जब गिरिधर- सकती है। जी वल्लभ संप्रदाय के अध्यक्ष थे तथा तुलसीदास जीवित नामकरण-हिन्दुओं के स्मार्त सोलह संस्कारों में से एक थे । इनका काल १६४२-१६८० ई० के मध्य है। 'भक्त- संस्कार । धर्मशास्त्र में नामकरण का बहुत महत्त्व है : माल' पश्चिमी हिन्दी का काव्य ग्रन्थ है तथा छप्पय छंद नामाखिलस्य व्यवहारहेतु शुभावहं कर्मसु भाग्यहेतु । में रचित है। यह 'सूत्रवत्' लिखा गया है तथा भाष्य के नाम्नव कीति लभते मनुष्यस्ततः प्रशस्तं खलु नामकर्म । बिना इसको समझना दुष्कर है। इस ग्रंथ में नाभाजी ने
(बृहस्पति) सभी सम्प्रदायों के महात्माओं की स्तुति की है और अपने [निश्चित ही नाम समस्त व्यवहारों का हेतु है । शुभ भाव अत्यन्त उदार रखे हैं। भक्तों के समाज में इसका का वहन करने वाला तथा भाग्य का कारण है। मनुष्य बड़ा आदर हुआ है।
नाम से ही कीर्ति प्राप्त करता है। इसलिए नामकरण की नाभाजी का शुद्ध नाम नारायणदास कहा जाता है। क्रिया बहुत प्रशस्त है। ] इस संस्कार का उद्देश्य है सोचनाभादास-दे० 'नाभाजी' ।
विचार कर ऐसा नाम रखना जो सुन्दर, माङ्गलिक तथा नाभानेदिष्ठ अथगा नाभाग विष्ट-ये सूर्यवंशी या वैव- प्रभावशाली हो । प्रायः चार प्रकार के नाम रखे जाते
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org