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करते हैं। पूर्णिमा को रुद्र तथा उमा, स्कन्द, नन्दीश्वर, रेवन्त का पूजन करना चाहिए। तिल, अक्षत तथा माष ( उरद) से निकुम्भ राक्षस के पूजन करने का विधान है । रात्रि को ब्राह्मणों को भोजन कराकर लोग स्वयं भी निरामिष भोजन करें, यह विधान है । इसके बाद रात्रि भर गीत, वाद्य, संगीत, नृत्यादि का आयोजन करें । दूसरे दिन आराम के साथ प्रभात काल में मिट्टी इत्यादि शरीर में पोतकर पिशाचों के समान बिना लज्जा अनुभव करते हुए खेलें - कूदें। मित्रों को भी मिट्टी, कीचड़ आदि मलते हुए अश्लील शब्दों का प्रयोग करें । मध्याह्न के पश्चात् वे स्नान करें यदि कोई पुरुष इस कामोत्सव में अपने आपको लिप्स नहीं करता तो वह पिशाचों से पीड़ित होता है।
(३) चैत्र कृष्ण चतुर्दशी को भगवान् शम्भु की तथा पिशाचों से घिरे निकुम्भ नामक राक्षस की पूजा होती है, उस दिन रात को लोगों को चाहिए कि वे पिशाचों से अपने बच्चों की रक्षा करें तथा वेश्याओं का नृत्य देखें । निक्षुभाषचतुष्टयगत निक्षुभा सूर्य नारायण की पत्नी का नाम है कृष्ण पक्ष की सप्तमी को निभा का व्रत किया जाता है । इसमें उपवास का विधान है। एक वर्ष तक यह अनुष्ठान चलता है। इसमें सूर्य तथा उनकी पत्नी निक्षुभा की प्रतिमाओं का पूजन होता है। महिला व्रती इस व्रत के आचरण से सूर्यलोक जायेंगी तथा जन्मान्तर में राजा को अपने पति के रूप में प्राप्त करेंगी । पुरुष लोग भी सूर्यलोक प्राप्त करेंगे । महाभारत का पाठ करने वाला एक पंडित एक वर्ष के अनुष्ठान के लिए बैठाना चाहिए। वर्ष के अन्त में सूर्य तथा निक्षुभा की स्वर्णालङ्कारवस्त्र विभूषित प्रतिमाओं को महाभारत का पाठ करने वाले की पत्नी को दान में देना चाहिए । निशुभाकं सप्तमी - पष्ठी, सप्तमी, संक्रान्ति अथवा किसी रविवार के दिन इस व्रत का अनुष्ठान प्रारम्भ होता है और एक वर्ष तक चलता है । स्वर्ण, रजत अथवा काष्ठ की सूर्य तथा निशुभा (सूर्वपत्नी) की प्रतिमाओं को उपवास करते हुए घी इत्यादि पदार्थों से स्नान कराकर होम तथा पूजन करना चाहिए। सूर्यभक्तों को भोजन कराना चाहिए इस व्रत का फल यह है कि मनुष्य के समस्त संकल्प तथा इच्छाएँ पूर्ण होती हैं तथा सूर्य और अन्य लोकों की प्राप्ति होती है ।
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निक्षुभाकंचतुष्टयव्रत नित्या राधनविधि
निगम - ज्ञान की वह पद्धति जो अन्ततोगत्वा साक्षात् अनुभूति पर आधारित है, निगम कहलाती है। इसीलिए स्वयं साक्षात्कृत (अनुभूत) वेदों को निगम कहते हैं। इससे भिन्न ज्ञान की जो पद्धति तर्फ प्रणाली पर अवलम्बित है वह आगम कहलाती है । इसीलिए दर्शनों को आगम कहते हैं । इस परम्परा में बौद्ध और जैन दर्शन प्रमुखतः आगमिक हैं। हिन्दू धर्म-दर्शनपरम्परा निगमागम का समन्वय करती है । नियमपरिशिष्ट कात्यायनरचित अनेक पद्धति और परि शिष्ट ग्रन्थ यजुर्वेदीय श्रोत्रसूत्र के अन्तर्गत हैं। कई स्थलों पर इनमें 'निग्मपरिशिष्ट' एवं 'चरणव्यूह' ग्रन्थों का भी नामोल्लेख है ।
निघण्टु - वेद के अर्थ को स्पष्ट करने के सम्बन्ध में दो अति प्राचीन ग्रन्थ हैं। एक है निघण्टु तथा अन्य हैं यास्क का निरुक्त | निघण्टु शब्द की व्युत्पत्ति प्रायः इस प्रकार से की जाती है 'निश्चयेन घटयति पठति शब्दान् इति निघण्टुः।' इसमें वैदिक पर्याय शब्दों का संग्रह है। इसके निघण्टु नाम पड़ने का एक कारण यह भी बतलाया जाता हैं कि इस कोश में उन शब्दों का संग्रह है जो मन्त्रार्थ के निगमक अथवा ज्ञापक हैं। इन शब्दों का रहस्य जाने बिना वेदों का यथार्थ आशय समझ में नहीं आ सकता । निघण्टु पांच अध्याओं में विभक्त है। प्रथम तीन अध्यायों में एकार्थक, चतुर्थ में अनेकार्थक तथा पञ्चम में देवतावाचक शब्दों का विशेष रूप से संग्रह किया गया है । इसी निघण्टु पर मास्क का निरुक्त लिखा गया है। निजगुणशिवयोगी- निजगुणयोगी अथवा निजगुण शिवयोगी एक ही व्यक्ति के दो नाम हैं । ये वीरशैव सम्प्रदाय के एक आचार्य थे । इन्होंने 'विवेकचिन्तामणि' नाम का शैव विश्वकोश तैयार किया था इनका प्रादुर्भावकाल सत्रहवीं शती वि० है |
नित्यपद्धति - आचार्य रामानुज रचित यह एक ग्रन्थ है । नित्यवाद — यह वेदान्त का एक सिद्धान्त है । इसके अनुसार वस्तुसत्ता स्थायी और निश्चल है। संसार में दिखाई पड़नेवाला परिवर्तन और विध्वंस प्रतीयमान अथवा अवास्तविक है । इस प्रकार वस्तुसत्ता की नित्यता में विश्वास रखनेवाला यह वाद है । नित्याराधनविधि - यह आचार्य रामानुजरचित एक ग्रन्थ है।
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