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न्यायसूत्रभाष्य-पञ्चककार
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न्यायसूत्रभाष्य-न्यायभाष्य का ही अन्य नाम न्यायसूत्र
भाष्य है । इसे वात्स्यायन ने प्रस्तुत किया है । न्यायसूत्रवृत्ति-सत्रहवीं शताब्दी के प्रारम्भ में विश्वनाथ न्यायपञ्चानन ने गौतमप्रणीत न्यायसूत्र पर यह वृत्ति रची। न्यायस्थिति-न्यायस्थिति एक नैयायिक थे, जिनका उल्लेख विक्रम की छठी शताब्दी में हुए वासवदत्ता-कथाकार सुबन्धु ने किया है। न्यायामृत-सोलहवीं शताब्दी में व्यास राज स्वामी ने शाङ्कर वेदान्त की आलोचना न्यायामृत नामक ग्रन्थ द्वारा की। आचार्य श्रीनिवास तीर्थ ने इस पर न्यायामृतप्रकाश नामक भाष्य लिखा है। न्यायालङ्कार-श्रीकण्ठ ने १०वीं शताब्दी में यह न्यायविषयक ग्रन्थ प्रस्तुत किया। न्यायलीलावती-बारहवीं शताब्दी में वल्लभ नामक न्यायाचार्य ने वैशेषिक दर्शन सम्बन्धी इस ग्रन्थ को प्रस्तुत किया। 'न्यास-शाक्त लोग अपनी साधना में अनेक दिव्य नामों और बीजाक्षर मन्त्रों का प्रयोग करते हैं। वे धातु के पत्तरों पर तथा घट आदि पात्रों पर मन्त्र तथा मण्डल खोदते है, साथ ही पूजा की अनेक मुद्राओं (अँगुलियों के संकेतों) का भी प्रयोग करते हैं, जिन्हें न्यास कहते हैं । इसमें मन्त्राक्षर बोलते हुए शरीर के विभिन्न अंगों का स्पर्श किया जाता है और भावना यह रहती है कि उन अंगों में दिव्य शक्ति आकर विराज रही है । अंगन्यास, करन्यास, हृदयादिन्यास, महान्यास आदि इसके अनेक भेद हैं।
पः परप्रियता तीक्ष्णा लोहितः पञ्चमो रमा। गुह्यकर्ता निधिः शेषः कालरात्रिः सूवाहिता ।। तपनः पालनः पाता पद्मरेणुनिरञ्जनः । सावित्री पातिनी पानं वीरतत्त्वो धनुर्धरः ।। दक्षपाश्वश्च सेनानी मरीचिः पवनः शनिः । उड्डीशं जयिनी कुम्भोऽलसं रेखा च मोहकः ।।
मूलाद्वितीयमिन्द्राणी लोकाक्षी मन आत्मनः ।। पक्षवधिनी एकादशी-जब पूर्णिमा अथवा अमावस्या अग्रिम प्रतिपदा को आक्रान्त करती है ( अर्थात् तिथिवृद्धि हो जाती है) तो यह पक्षवर्धिनी कहलाती है। इसी प्रकार यदि एकादशी द्वादशी को आक्रान्त करती है ( अर्थात् द्वादशी के दिन भी रहती है) तो वह भी पक्षवधिनी है। विष्णु भगवान् को सोने की प्रतिमा का उस दिन पूजन करना चाहिए । रात्रि में नृत्य, गान आदि करते हुए जागरण का विधान है । वैष्णव लोग ऐसे पक्ष की एकादशी का व्रत अगले दिन द्वादशी को करते हैं । दे० पद्म०, ६.३८ । पंक्तिदूषण ब्राह्मण-जिन ब्राह्मणों के बैठने से ब्रह्मभोज की पंक्ति दूषित समझी जाती है, उनको पंक्तिदूषण कहा जाता है। ऐसे लोगों की बड़ी लम्बी सूची है। हव्य-कव्य के ब्रह्मभोज की पंक्ति में यद्यपि नास्तिक और अनीश्वरवादियों को सम्मिलित करने का नियम न था तथापि उन्हें पंक्ति से उठाने की शायद ही कभी नौबत आयी हो, क्योंकि जो हव्य-कव्य को मानता ही नहीं, यदि उसमें तनिक भी स्वाभिमान होगा तो वह ऐसे भोजों में सम्मिलित होना पसन्द न करेगा। पंक्तिदूषकों की इतनी लम्बी सुची देखकर यह समझा जा सकता है कि पक्तिपावन ब्राह्मणों की संख्या बहुत बड़ी नहीं हो सकती । ब्राह्मणसमुदाय के अतिरिक्त अन्य वणों में पंक्ति के नियमों के पालन में ढीलाई होना स्वाभाविक है। पंक्तिपावन ब्राह्मण-जिन ब्राह्मणों के भोजपंक्ति में बैठने से पक्ति पवित्र मानी जाती है, उनको पंक्तिपावन कहते हैं । इनमें प्रायः श्रोत्रिय ब्राह्मण (वेदों का स्वाध्याय और पारायण करनेवाले) होते है। संस्कार सम्बन्धी भोजों में पंक्तिपावनता ब्राह्मणों की विशेषता मानी जाती थी, परन्तु वह भी सामूहिक न थी। पंक्तिपावन ब्राह्मण पंक्तिदूषण की अपेक्षा बहुत कम होते थे। पञ्चककार-कच्छ, केश, कंघा, कड़ा और कृपाण धारण करना प्रत्येक सिक्ख के लिए आवश्यक है। 'क' अक्षर से
प-यह व्यञ्जन वर्णों के पञ्चम वर्ग का प्रथम अक्षर है। कामधेनुतन्त्र में इसका माहात्म्य निम्नांकित है :
अतः परं प्रवक्ष्यामि पकाराक्ष रमव्ययम् । चतुर्वर्गप्रदं वर्ण शरच्चन्द्रसमप्रभम् ॥ पञ्चदेवमयं वर्ण स्वयं परम कुण्डली । पञ्चप्राणमयं वर्ण त्रिशक्तिसहितं सदा ।। त्रिगुणावाहितं वर्णमात्मादि तत्त्वसंयुतम् ।
महामोक्षप्रदं वर्ण हृदि भावय पार्वति ।। तन्त्रशास्त्र में इसके निम्नलिखित नाम पाये जाते है :
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