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प्रारम्भ होनेवाले ये ही पाँच शब्द (पदार्थ) पञ्चककार कहलाते हैं ।
पञ्चकृष्ण-मानभाउ सम्प्रदाय वाले जहाँ दत्तात्रेय को अपने सम्प्रदाय का संस्थापक मानते हैं वहीं वे चार युगों के एक-एक नये प्रवर्तक भी मानते हैं। इस प्रकार के 'कुल पाँच प्रवर्तकों की पूजा करते हैं। इन पांच प्रवर्तकों को वे 'पञ्चकृष्ण' कहते हैं । .
पञ्चगव्य - गाय से उत्पन्न पाँच पदार्थों ( दूध, दही, घृत, गोवर, गोमूत्र ) के मिलाने से पञ्चगव्य तैयार होता है, जो हिन्दू शास्त्रों में बहुत ही पवित्र माना गया है । अनेक अवसरों पर इसका गृह तथा शरीर की शुद्धि के लिए प्रयोग करते हैं। प्रायश्वित्तों में इसका प्रायः पान किया जाता है। पञ्चग्रन्थी- सिक्खों की प्रार्थनापुस्तक का नाम पञ्चग्रन्थी है । इसमें ( १ ) जपजी (२) रहिरास (३) कीर्तन - सोहिला (४) सुखमणि और (५) आसा दीवार नामक पांच पुस्ति काओं का संग्रह है। पांचों में से प्रथम तीन का खालसा सिक्खों द्वारा नित्य पाठ किया जाता है। ये सभी पारायण के ग्रन्थ हैं । पञ्चघटपूर्णिमा- इस व्रत में पूर्णिमा देवी की मूर्ति की पूजा का विधान है। एकभक्त पद्धति से आहार करते हुए पाँच पूर्णिमाओं को यह व्रत करना चाहिए। व्रत के अन्त में पांच कलशों में क्रमशः दुग्ध, दधि, घृत, मधु तथा श्वेत शर्करा भरकर दान देना चाहिए। इससे समस्त मनोरथों की पूर्ति होती है ।
पञ्च तप अथवा पचान्ति तपस्था पाँच वैदिक अग्नियों की उपासना या होमक्रिया का परिवर्तित रूप प्रतीत होता है। वैदिक पञ्चाग्नियों के नाम है दक्षिणाग्नि (अन्वाहार्यपचन), गार्हपत्य, आहवनीय, सभ्य और आवसथ्य पञ्चदशी - अद्वैतवेदान्त सम्बन्धी यह ग्रन्थ विचारण्य स्वामी ( मानवाचार्य) द्वारा १४०७ वि० में रचा गया। यह अनुष्टुप् छन्द में श्लोकबद्ध] स्वतन्त्र रचना है। जैसा कि नाम से ही प्रकट है, यह पन्द्रह प्रकरणों में विभक्त है और प्रकरण ग्रन्थ है । इसमें प्रायः १५०० श्लोक हैं ।
पञ्चकृष्ण पञ्चपिण्डिकागौरीव्रत
पञ्चदेवोपासना - अधिकांश विचारकों का कहना है कि आचार्य शङ्कर ने पञ्चदेवोपासना की रीति चलायी, जिसमें विष्णु, शिव, सूर्य, गणेश और देवी परमात्मा के इन पांचों रूपों में से एक को प्रधान मानकर और शेष को उसका अङ्गीभूत समझकर पूजा की जाती है। आचार्य ने पुराने पाञ्चराण पाशुपत, शाक्त आदि मतों को एकत्र समन्वित कर यह पञ्चदेव उपासना प्रणाली आरम्भ की । इसीलिए यह स्मार्त पद्धति कहलाती है। आज भी साधारण सनातनधर्मी इस स्मार्त्त मत के मानने वाले समझे जाते हैं ।
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पञ्चपटल - आचार्य रामानुज रचित एक ग्रन्थ । पञ्चपल्लव - पवित्र पश्च पल्लव हैं आम्र, अश्वत्थ, वट, प्लक्ष (पाकड़) और उदुम्बर ( गूलर) धार्मिक कृत्यों में इनका उपयोग कलश स्थापन में होता है । दे० हेमाद्रि, १.४७ ।
पञ्चतप ( पञ्चाग्नितप ) — हिन्दू तपस्या की एक पद्धति । इसमें तपस्वी चार अग्नियों का ताप तो सहन करता ही है। जो वह अपने चारों ओर जलाता है, पाँचवाँ सूर्य भी सिर पर तपता है। इसी को पञ्चाग्नि तपस्या कहते हैं।
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पञ्चपादिका - वेदान्तसूत्र के पर रची गयी एक टीका वि०) इसके निर्माता थे । पञ्चविकादर्पण - अमलानन्द स्वामी अद्वैतमत के समर्थ विचारक थे । ये चौदहवीं शताब्दी वि० के प्रारम्भ में हुए थे । इन्होंने पद्मपादाचार्य कृत पञ्चपादिका की पञ्चपादिकादर्पण नाम से टीका लिखी है। इसकी भाषा प्राल और भावगम्भीर है। इससे अमलानन्द की महती विद्वत्ता का परिचय मिलता है ।
शांकर भाष्य के पाँच पादों शंकरशिष्य पद्मपाद (९०७
पचपादिकाविवरण पद्मपादाचार्य कुत पञ्चपादिका पर पञ्चपादिकाविवरण नामक टीका की रचना अद्वैत वेदान्त के प्रखर विद्वान् महात्मा प्रकाशात्मयति ने की अद्वैत जगत् में यह टीका बहुत मान्य है। बाद के आचार्यों ने प्रकाशात्मयति ( प्रकाशानुभव इनका अन्य नाम था ) को आवश्यक प्रमाण के रूप में उद्धृत किया है । पञ्चपादिकाविवरण नामक इनके ग्रन्थ द्वारा अद्वैतमत का, विशेष कर
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पद्मपादाचार्य के मत का अच्छा प्रचार हुआ । पञ्चपिण्ड गौरी- भाद्र शुक्ल तृतीया को यह व्रत गौरीव्रतकिया जाता है, इस दिन उपवास का विधान है। रात्रि के प्रारम्भ में गीली मिट्टी से गौरी की पाँच प्रतिमाएँ तथा इनसे पृथक् गौरी की प्रतिमा बनाकर स्थापित करनी चाहिए | रात्रि के प्रति प्रहर में प्रतिमाओं का मन्त्रोच्चारण करते हुए धूप, कपूर, घृत, दीपक, पुष्प, अयं तथा
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