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नासत्य-नासिकपंचवटी
नाम रखा 'नालायिर प्रबन्धम्' अथवा 'चार सहस्र गीतों का संग्रह ।' इस पर अनेक भाष्य रचे गये हैं । नाथ मुनि ने इस ग्रन्थ के गीतों का पाठ तथा गान करना अपने अनु- यायियों का दैनिक कार्यक्रम बना दिया। नासत्य-(१) यह वैदिक युग्म देवता अश्विनौ का एक विरुद है। इनके दो विरुद हैं. 'दस्र' और 'नासत्य' । 'दस्र' का अर्थ है आश्चर्यजनक तथा 'नासत्य' का अर्थ है न + असत्य अर्थात् जो कभी असफल न हो। अश्विनी स्वास्थ्य और सत्य के देवता हैं।
(२) उत्तरी ईरान स्थित प्रागैतिहासिक बोगाजकोई पट्टिका पर नासत्य का नाम मित्र, वरुण और इन्द्र के साथ प्रयुक्त हुआ है । उसमें नासत्य शब्द का गठन प्रकट करता है कि स का ह में भाषिक परिवर्तन तब तक नहीं हुआ था। इसलिए यह शब्द भारत-ईरानी काल का है। लघु अवेस्ता में हम दैत्य नाओन हेथ्य का नाम पाते हैं जो नासत्य की पदावनति के फलस्वरूप बना है। अतएव नासत्या (उ) निश्चय ही भारत-ईरानी अथवा पूर्व ईरानी देवता हैं। नासदीय सूक्त-ऋग्वेद में ज्ञानकाण्ड सम्बन्धी सृष्टिविज्ञान विषयक दो सूक्त हैं-नासदीय तथा पुरुषसूक्त । नासदीय सूक्त ऋग्वेद, १०.१२९ की प्रथम पंक्ति "नासदासीन्नो सदासीत् तदानीम्' के आरम्भिक शब्द नासद के आधार पर प्रस्तुत सूक्त का नासदीय नाम हुआ है। इसमें प्रकृति के विकास की दृष्टि से सृष्टि रचना का का उल्लेख है जिसका भावार्थ निम्नलिखित है :
(नासदासीत्) जब यह कार्यसृष्टि उत्पन्न नहीं हुई थी, तब एक सर्वशक्तिमान् परमेश्वर और दूसरा जगत् का कारण अर्थात् जगत् बनाने की सामग्री वर्तमान थी । उस समय ( असत् ) शन्य नाम आकाश, अर्थात् (जो नेत्रों से देखने में नहीं आता) भी नहीं था, क्योंकि उस समय उसका व्यवहार नहीं था। (नो सदासीत्तदानीम्) उस काल में सत् अर्थात् सत्त्व गुण, रजोगुण और तमोगुण मिलाकर जो प्रधान कहलाता है, वह भी नहीं था । ( नासीद्रजः ) उस समय परमाणु भी नहीं थे तथा (नो व्योमा) विराट् अर्थात् जो सब स्थूल जगत् के विकास का स्थान है सो भी नहीं था। (किमा०) जो यह वर्तमान जगत् है, वह अनन्त शुद्ध ब्रह्म को नहीं ढक सकता और उससे अधिक व अथाह भी नहीं हो सकता। (न मृत्युः) जब जगन् नहीं था तब मृत्यु
भी नहीं थी। अन्धकार की सत्ता भी नहीं थी, क्योंकि अन्धकार प्रकाश के अभाव का ही नाम है । तब प्रकाश की उत्पत्ति हुई नहीं थी। इसी महा अन्धकार से ढका हुआ यह सब कुछ (भावी विश्वसत्ता) चिह्न और विभागरहित (अज्ञेय तथा अविभक्त) एवं देश तथा काल के विभाग से शून्य स्थिति में सर्वत्र सम और विषम भाव से बिल्कुल एक में मिला हुआ फैला था। (तो भी) जो कुछ सत्ता थी वह शून्यता से ढकी हुई थी ( क्योंकि ) आकाशादि की उत्पत्ति नहीं हुई थी और किसी प्रकार का आकार नहीं था। (क्योंकि) आकार से ही सृष्टि का आरम्भ होता है । तपस् की महान् शक्ति से (उपर्युक्त असष्टि की दशा में) 'एक' की उत्पत्ति हुई। उस एक में पहले-पहल लीलाविस्तार की कामना उत्पन्न हुई। उस एक के मनन या विचार से यह कामना बीज के रूप में हुई। तदनन्तर ऋषियों ने विचार किया और अपने हृदय में खोजा तो पता चला कि यही कामना सत् और असत् को बाँधने का कारण हुई । इनकी विभाजक रेखा (सदसत् में विवेक करने की रेखा) तिर्यक् रूप से फैल गयी। फिर उसके ऊपर क्या था और नीचे क्या था? उत्पन्न करने वाला रेतस् अर्थात् बीज था, महावलवान् शक्तियाँ थीं। इधर जहाँ स्वच्छन्द क्रिया थी उधर परे ( क्रियाप्रणोदक भी ) महाशक्ति थी।
सचमुच कौन जानता है और यहाँ कौन कह सकता है कि (यह सब) कहाँ से उपजा और इस विश्व की सृष्टि कहाँ से आयी । देवताओं की उत्पत्ति बाद की है और यह सृष्टि पहले प्रारम्भ हुआ । फिर कौन जान सकता है कि यह सब कैसे आरम्भ हुई। (वेद ने जो उपर्युक्त वर्णन किया है वह वेदों को ही कसे ज्ञात हुआ; यहाँ व्याज से वेदों का अनादि होना व्यंजित होता है)। जिससे विश्व की सृष्टि आरम्भ हुई उसने यह सब रचा है (अपनी इच्छाशक्ति से सृष्टि की प्रेरणा की है) या नहीं रचा है, अर्थात् उसकी प्रेरणा के बिना आप हो आप हो गया है। परम व्योम में जिसकी आँखें इस विश्व का निरीक्षण कर रही हैं वस्तुतः (इन दोनों बातों के रहस्य को) वही जानता है । या शायद वह भी नहीं जानता (क्योंकि उस निर्गुण और निराकार में सष्टि से पहले ज्ञान, इच्छा और क्रिया इन तीनों का भाव नहीं था)। नासिक पंचवटी-यह महाराष्ट्र का प्राचीन तीर्थस्थान है। नासिक और पञ्चवटी वस्तुतः एक ही नगर है। नगर के
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