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निरुवनपुराण-निशी जैसा कि कहा गया है, निरुक्त का उद्देश्य है व्युत्पत्ति ।
धारी और (२) सिंध। पहले के छः तथा दूसरे के तीन (प्रकृति-प्रत्यय) के आधार पर अर्थ का रहस्य खोलना।
उपविभाग है । सिंघों की तीन शाखाएँ हैं-(१) मख्यतः दो प्रकार के अर्थ होते हैं-(१) सामान्य और
खालसा, (२) निर्मल और (३) अकाली। निर्मल संन्या(२) विशिष्ट । सामान्य के चार भेद हैं-(१) कथित,
सियों का दल है। इस दल के संस्थापक वीरसिंह उच्चरित अथवा व्याख्यात (२) उद्घोषित (महाभारतादि थे, जिन्होंने १७४७ वि० में इस शाखा को संगठित किया । में) (३) निर्दिष्ट अथवा विहित (धर्मशास्त्र में) (४) निर्मल पंथ-दे० 'निर्मल' । व्यत्पत्त्यात्मक । विशिष्ट का अर्थ है वैदिक शब्दों का निरोधलक्षण-वल्लभाचार्य द्वारा रचित एक ग्रन्थ । इसका व्यत्पत्त्यात्मक अर्थ अथवा व्याख्या करने वाले ग्रन्थ । पूरा नाम 'निरोधलक्षणनिवृत्ति' है। वेदाङ्गों में निरुक्त का प्रयोग इसी अर्थ में किया गया है। निर्वचन ग्रन्थ-निरुक्त के विषयों के निर्वचनलक्षण' तथा निरवनपराण-नाथपंथी योगियों द्वारा रचित एक ग्रन्थ 'निर्वचनोपदेश' दो विभाग हैं। का नाम ।
निर्वाण-यह मुख्यतः बौद्ध दर्शन का शब्द है, किन्तु निरूढपशुबन्ध-एक प्रकार का यज्ञ, जिसमें यज्ञस्तंभ आस्तिक दर्शनों में उपनिषदों के समय से इसका प्रयोग
को जिस वृक्ष से काटते थे, उसको अभिषिक्त करते थे। हआ है। निर्वाण तथा ब्रह्मनिर्वाण दोनों प्रकार से इसका फिर बलिपशु को तेल व हरिद्रा मलकर नहलाते तथा विवेचन किया गया है। यह आत्मा की वह स्थिति है बलि के पूर्व घी से उसको अभिषिक्त करते थे। इसके जिसमें सम्पूर्ण वेदना, दुःख, मानसिक चिन्ता और संक्षेप पश्चात् उसको स्तम्भ से बाँध देते थे और विधि के अनु- में समस्त संसार लुप्त हो जाते हैं। इसमें आत्मतत्व की सार उसकी बलि देते थे।
चेतना अथवा सच्चिदानन्द स्वरूप नहीं नष्ट होता, किन्तु निर्गण-इसका अर्थ है गुणरहित । चरम सत्ता ब्रह्म के दो उसके दुःखमुलक संकीर्ण व्यक्तित्व का लोप हो जाता है। रूप हैं-निर्गुण और सगुण । उसके सगुण रूप से दृश्य निर्वाण उपनिषद्-यह एक परवर्ती उपनिषद् है । जगत का विकास अथवा विवर्त होता है। किंतु वास्तविक निविद-सार्वजनिक वैदिक पूजा के अवसर पर देवों को वस्तुसत्ता तो निर्गुण ही होती है। गुणों के सहारे से जागृत तथा आमन्त्रित करने वाले मन्त्र का नाम । ब्राह्मणों उसका वर्णन अथवा निर्वचन नहीं हो सकता है। सम्पूर्ण में निविद का बार-बार उल्लेख आया है, जिसका समावेश विश्व में अन्तर्यामी होते हुए भी वह तात्त्विक दृष्टि से प्रपाठकों में हुआ है। ऋग्वेद के खिलों में निविदों का अतिरेकी और निर्गुण ही रहता है।
एक पञ्चक ही संगृहीत है। किन्तु यह सन्देहात्मक निर्णयसिन्धु-यह कमलाकर भट्ट का सर्वप्रसिद्ध ग्रन्थ है। है कि ऋग्वेदीय काल में निविद जैसे सूक्तों के प्रयोग की यह उनको विद्या, अव्यवसाय तथा सरलता का प्रतीक प्रया थी, यद्यपि यह ऋग्वेद में पाया जाता है । ब्राह्मणों है। न्यायालयों में यह प्रमाण माना जाता है। निर्णय- में जो इसका क्रियात्मक अर्थ है वह यहाँ नहीं प्रयुक्त हुआ सिन्धु में लगभग एक सौ स्मृतियों और तीन सौ निबन्ध- है। परवर्ती संहिताओं में इस शब्द का प्रयोग क्रियात्मक कारों का उल्लेख हुआ है। यह ग्रन्थ तीन परिच्छेदों में अर्थ में ही हुआ है। विभक्त है। इसमें विविध धार्मिक विषयों पर निर्णय निशो-अमानवीय आत्माओं में दैत्य एवं दानवों के अतिदिया गया है, जैसे वर्ष के प्रकार ( सौर, चान्द्र आदि ), रिक्त प्रकृति के कुछ भयावने उपादानों को भी प्राचीन चार प्रकार के मास, संक्रान्ति के कृत्य और दान, अधिक काल में दैत्य का रूप दे दिया गया था । अन्धेरी रात, मास, क्षयमास, तिथियाँ ( शुद्ध और विद्ध), व्रत, उत्सव, पर्वतगुफा, सघन वनस्थली आदि ऐसे ही उपादान थे। संस्कार, सपिण्ड सम्बन्ध, मूर्तिप्रतिष्ठा, मुहर्त, धाद्ध, 'निशी' रात के अन्धेरे का ही दैत्यीकरण है। प्राचीन अशौच, सतीप्रथा, संन्यास आदि। इसकी रचना काशी काल में और आज भी यह विश्वास किया जाता है कि में सोलहवीं शती के पूर्वार्द्ध में हुई थी।
निशी ( दैत्य के रूप में) आधी रात को आती है, घर निर्मल-सिक्खों के विरक्त सम्प्रदाय का नाम । सिक्ख के स्वामी को बुलाती है तथा उसे अपने पीछे-पीछे चलने सम्प्रदाय मुख्य रूप से दो भागों में विभक्त है-(१) सहिज- को बाध्य करती है। उसे वन में घसीट ले जाती है तथा
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