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नियोग-निरुक्त
नियोग-इसका शाब्दिक अर्थ है 'नियोजन' अथवा 'योजना', स्वीकृति देते हैं। इस विरोध का इतना फल हुआ कि अर्थात पति की असमर्थता अथवा अभाव में ऐसी व्यवस्था शारीरिक आनन्द के लिए नियोग न कर पुत्र की कामनाजिससे सन्तान उत्पन्न हो सके । वैदिक काल से लेकर वश ही नियोग की प्रथा रह गयी । गर्भाधान के बाद दोनों ३०० ई० पू० तक विधवा के पति के साथ चिता पर (विधवा तथा नियोजित पति) अलग हो जाते थे। धीरेजलने का विधान नहीं था। उसके जीवन व्यतीत करने धीरे जब सन्तानोत्पत्ति अनिवार्य न रही तो नियोग प्रथा के तीन मार्ग थे—(१) आजीवन वैधव्य, (२) नियोग भी बन्द हो गयी। आधुनिक युग में स्वामी दयानन्द द्वारा सन्तान प्राप्त करना और (३) पुनर्विवाह ।
सरस्वती ने नियोग का कुछ अनुमोदन किया परन्तु यह प्राचीन काल में नियोग अनेक सभ्यताओं में प्रचलित प्रथा पुनर्जीवित नहीं हुई। धीरे-धीरे विधवाविवाह के था। इसका कारण ढूँढना कठिन नहीं है। स्त्री प्रचलन से यह प्रथा बन्द हो गयी । जो विधवा वैधव्य की पति की ही नहीं बल्कि उसके परिवार की सम्पत्ति समझी कठोरता का पालन करने में असमर्थ हो उसके लिए पुनजाती थी और इसी कारण पति के मरने के बाद उसका विवाह करना उचित माना गया। इससे नियोग की प्रथा देवर (पति का भाई) उसे पत्नी के रूप में ग्रहण करता तथा सन्तानोत्पादन करता था। प्राचीन काल में ग्रहण निर्जला एकादशी-ज्येष्ठ शुक्ल एकादशी को निर्जला एकाकिये गये 'दत्तक' पुत्र से नियोग द्वारा पैदा किया गया पुत्र दशी कहते हैं । इस दिन प्रातः से लेकर दूसरे दिन प्रातः श्रेष्ठ समझा जाता था। इसलिए उसे औरस के बाद तक उपवास करना चाहिए। इस दिन जलग्रहण भी दूसरा स्थान प्राप्त होता था। महाभारत तथा पुराणों के निषिद्ध है, केवल सन्ध्योपासना के समय किये गये आचअनेक नायक नियोग से पैदा हुए थे।
मनों को छोड़कर । दूसरे दिन प्रातः शर्करामिश्रित जल से नियोग प्रणाली के अनुसार जब किसी स्त्री का पति
परिपूर्ण एक कलश दान में देकर स्वयं जलपानादि करना मर जाता या सन्तानोत्पादन के अयोग्य होता था तो वह
चाहिए। इससे बारहों द्वादशियों का फल तो प्राप्त होता अपने देवर या किसी निकटवर्ती सम्बन्धी के साथ सहवास
ही है, व्रती सीधा विष्णुलोक को जाता है । कर कुछ सन्तान उत्पन्न करती थी। देवर इस कार्य के
निराकारमीमांसा-गुरु नानकरचित एक ग्रन्थ । यह संस्कृत लिए सर्वश्रेष्ठ समझा जाता था। देवर अथवा सगोत्र के
भाषा में रचा गया है। अभाव में किसी श्रेष्ठ ब्राह्मण से नियोग कराया जाता था।
निरालम्ब उपनिषद्-यह एक परवर्ती उपनिषद् है। परवर्ती स्मतियों में नियोग द्वारा एक ही पुत्र पैदा
निरुक्त-वेद का अर्थ स्पष्ट करने वाले दो ग्रन्थ अति करने की आज्ञा दी गयी, किन्तु पहले कुछ भिन्न अवस्था
प्राचीन समझे जाते हैं, एक तो निघण्टु तथा दूसरा यास्क थी । कुन्ती ने अपने पति से बाधित हो नियोग द्वारा तीन
का निरुक्त । कुछ विद्वानों के अनुसार निघण्टु के भी रचपुत्र प्राप्त किये थे। पाण्डु इस संख्या से सन्तुष्ट नहीं थे,
यिता यास्क ही थे। दुर्गाचार्य ने निरुक्त पर अपनी किन्तु कुन्ती ने सुझाया कि नियोग द्वारा तीन ही पुत्र पैदा सुप्रसिद्ध वृत्ति लिखी है। निरुक्त से शब्दों की व्युत्पत्ति किये जा सकते हैं। क्षत्रियों को अनेक पत्रों की कामना
समझ में आती है और प्रसंगानुसार अर्थ लगाने में सुविधा हुआ करती थी तथा प्रागैतिहासिक काल में नियोग से होती है। असंख्य सन्तान पैदा करने की परिपाटी थी।
वास्तव में वैदिक अर्थ को स्पष्ट करने के लिए निरुक्त __३०० ई० पू० तक नियोग प्रथा प्रचलित थी। किन्तु की पुरानी परम्परा थी। इस परम्परा में यास्क का इसके बाद इसका विरोध आरम्भ हुआ। आपस्तम्ब, चौदहवां स्थान है। यास्क ने निघण्टु के प्रथम तीन बौधायन तथा मनु ने इसका विरोध किया। मनु ने इसे अध्यायों की व्याख्या निरुक्त के प्रथम तीन अध्यायों में पशुधर्म कहा है। वसिष्ठ तथा गौतम ने इसका केवल की है । निघण्टु के चतुर्थ अध्याय की व्याख्या निरुक्त के इतना ही विरोध किया कि देवर के प्राप्त होने पर कोई अगले तीन अध्यायों में की गयी है। निघण्ट के पञ्चम स्त्री किसी अपरिचित से नियोग न करे । कौटिल्य एक अध्याय की व्याख्या निरुक्त के शेष छः अध्यायों में बूढ़े राजा को नियोग द्वारा एक नया पुत्र प्राप्त करने की
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