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नसिंहाश्रम-नैगम शाक्त
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विष्णु न मृग और न मानव अर्थात् अपूर्व नृसिंह रूप मुण्डक, माण्डूक्य, प्रश्न और नृसिंहतापनीय, इन चार को धारण कर स्तम्भ से ही प्रकट हो गये। इस स्वरूप को प्रधान आथर्वण उपनिषद् माना है। देखकर हिरण्यकशिपु के मन में किसी प्रकार का भय नहीं यह उपनिषद् भी नरसिंह सम्प्रदाय की है और नृसिंहहुआ। वह हाथ में गदा लेकर नसिंह भगवान् के ऊपर मन्त्रराज को प्रोत्साहित करती है, किन्तु विशेष रूप से प्रहार करने को उद्यत हो गया। किन्तु प्रभु ने तुरन्त ही। यह उपनिषद् साम्प्रदायिक विधि का निर्देश करती है। उसे पकड़ लिया और जिस प्रकार गरुड विषधर सर्प को इसमें नसिंह को परम ब्रह्म, आत्मा तथा ओम् बताया मार डालता है उसी प्रकार नसिंह रूपधारी भगवान् गया है। विष्ण ने उस दैत्यराज को अपने नखों द्वारा उसका हृदय नेत्रव्रत-चैत्र शक्ल द्वितीया को इस व्रत का अनुष्ठान होता विदीर्ण कर मार डाला और सरलमति बालक प्रह्लाद की है। विवरण के लिए दे० 'चक्षवत' । रक्षा की।
नेष्टा-एक यज्ञकर्म सम्पादक ऋत्विज् । यह नाम ऋग्वेद, नसिंहाश्रम-अद्वैत सम्प्रदाय के प्रमुख आचार्य । इनके गुरु तै० सं०, ऐ० ब्रा०, शतपथ ब्राह्मण, पंचविंश ब्रा० स्वामी जगन्नाथाश्रम थे। इनका जीवनकाल पन्द्रहवीं आदि में सोमयज्ञ के पुरोहितवर्ग के एक प्रधान सदस्य शताब्दी का उत्तरार्द्ध होना चाहिए। नृसिंहाश्रम स्वामी के रूप में प्रयुक्त हुआ है। उद्भट दार्शनिक और बड़े प्रौढ पण्डित थे। इनकी रचना नैगम शाक्त-इनको 'दक्षिणाचारी' भी कहते हैं । ऋग्वेद बहुत उच्च कोटि की और युक्तिप्रधान है। कहते हैं, के आठवें अष्टक के अन्तिम सूक्त में "इयं शुष्मेभिः" इन्हीं की प्रेरणा से अप्पय दीक्षित ने 'परिमल', 'न्याय- प्रभृति मन्त्रों में देवता रूप में महाशक्ति अथवा सरस्वती रक्षामणि' एवं 'सिद्धान्तलेश' आदि वेदान्त ग्रन्थों की का स्तवन है । सामवेद में वाचंयम व्रत में 'हुवा ईवाचम्" रचना की थी। इनके रचे हए ग्रन्थों का संक्षिप्त परिचय इत्यादि तथा ज्योतिष्टोम में “वाग्विसर्जन स्तोम" आता इस प्रकार है :
है। अरण्यगान में भी इसके गान हैं। यजुर्वेद (२.२) में (१) भावप्रकाशिका-यह प्रकाशात्म यति कृत पञ्चपा
"सरस्वत्यै स्वाहा” मन्त्र से आहुति देने की विधि है। दिकाविवरण की टीका है।
पाँचवें अध्याय के सोलहवें मन्त्र में पृथिवी और अदिति (२) तत्त्वविवेक (१६०४ वि० सं०)-यह ग्रन्थ अभी
देवियों की चर्चा है । पाँचों दिशाओं से विघ्न-बाधानिवारण प्रकाशित नहीं है। इसमें दो परिच्छेद है। इसके ऊपर
के लिए सत्रहवें अध्याय के ५५वें मन्त्र में इन्द्र, वरुण, उन्होंने स्वयं ही 'तत्त्वविवेकदीपन' नाम की टीका
यम, सोम, ब्रह्मा इन पाँच देवताओं की शक्तियों (देवियों) लिखी है।
का आवाहन किया गया है । अथर्ववेद के चौथे काण्ड के
तीसवें मुक्त में कथन है : (३) भेदधिक्कार-इसमें भेदभाव का खण्डन है।
अहं रुद्रेभिर्वसुभिश्चरामि (४) अद्वैतदीपिका-यह अद्वैत वेदान्त का युक्तिप्रधान
अहम् आदित्यैरुत विश्वदेवः । ग्रन्थ है।
अहं मित्रावरुणोभा बिमि (५) वैदिकसिद्धान्तसंग्रह-इसमें ब्रह्मा, विष्णु और
अहम् इन्द्राग्नी अहम् अश्विनोभा । शिव की एकता सिद्ध की गयी है और यह बतलाया गया भगवती महाशक्ति कहती हैं, "मैं समस्त देवताओं के है कि ये तीनों एक ही परब्रह्म की अभिव्यक्ति मात्र हैं।
साथ हूँ । सबमें व्याप्त रहती हूँ।" केनोपनिषद् में (बहु शोभ(६) तत्त्वबोधिनी--यह सर्वज्ञात्ममुनि कृत संक्षेप- मानामुमां हैमवतीम्) ब्रह्मविद्या महाशक्ति का प्रकट होकर शारीरक की व्याख्या है।
ब्रह्म का निर्देश करना वर्णित है। देव्यथर्वशीर्ष, देवीसूक्त नृसिंहोत्तरतापनीय उपनिषद्-विद्यारण्य स्वामी ने 'सर्वो- और श्रीसूक्त तो शक्ति के ही स्तवन है। वैदिक शाक्त पनिषदर्थानुभूतिप्रकाश' नामक ग्रन्थ में मुण्डक, प्रश्न और सिद्ध करते है कि दशोपनिषदों में दसों माविद्याओं का नृसिंहोत्तरतापनीय नामक तीन उपनिषदों को आदि ब्रह्मरूप में वर्णन है। इस प्रकार शाक्त, मत का आधार अथर्ववेदीय उपनिषद् माना है। किन्तु शङ्कराचार्य ने भी श्रुति ही है।
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