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नवद्वीपधाम-नगरात्र
नवद्वीपधाम-बंगाल का प्रसिद्ध तीर्थ स्थान और प्राचीन दिग्विजय' में गाणपत्यों को छः शाखा-सम्प्रदायों में विभाविद्याकेन्द्र । चैतन्य महाप्रभु की जन्मभूमि होने से गौड़ीय जित किया गया है, जो गणपति के छ: रूपों की पूजा वैष्णवों का यह महातीर्थ है। कलकत्ता से ६६ मील करने के कारण उन रूपों के नाम से ही प्रसिद्ध हैं । उनमें दूर नवद्वीप है, यहाँ कई धर्मशालाएँ हैं। दर्शनार्थी को से 'नवनीतगणपति' भी एक है। निश्चित दक्षिणा देने पर मन्दिरों में दर्शनार्थ जाने दिया नवनीतधेनुदान-कार्तिकी अमावस्या को इस व्रत का जाता है । यहाँ बहुत से दर्शनीय स्थान हैं, जैसे धामेश्वर, अनुष्ठान होता है। इसमें ब्रह्मा और सावित्री की पूजा अद्वैताचार्य मन्दिर, गौरगोविन्द मन्दिर, शचीमाता-विष्णु- करनी चाहिए। धेनु के नवनीत का कुछ अन्य फलों, प्रिया मन्दिर आदि । यहाँ प्रति वर्ष बहुत बड़ा वैष्णव । सुवर्ण तथा वस्त्रों सहित दान करना चाहिए। समागम होता है।
नवमीरथव्रत-आश्विन शुक्ल नवमी को उपवास तथा नवनक्षत्रशान्ति-नव नक्षत्रों के तुष्टीकरण के लिए उनकी दुर्गाजी का पूजन करना चाहिए। वस्त्रों, ध्वजा-पतापूजा करनी चाहिए। जन्मकालीन नक्षत्र जन्मनक्षत्र कह- काओं, झण्डियों, दर्पणों, पुष्पमालाओं से सज्जित और लाता है । चतुर्थ, दशम, षोडश, विंश, त्रयोविंश नक्षत्रों सिंहाकृति से मण्डित देवीजी के रथ की पूजा करनी को क्रमशः मानस, कर्म, सांघातिक, समुदय तथा वैनाशिक चाहिए। त्रिशूलधारिणी, महिषासुरमर्दिनी देवी की कहा जाता है । सामान्य जन के लिए उपर्युक्त षट् नक्षत्र सुवर्णप्रतिमा को रथ में विराजमान करना चाहिए। यह ही माननीय हैं, किन्तु राजाओं को तीन और अधिक त्रिशूल महिषासुर के शरीर में घुसा होना चाहिए। मानने चाहिए । उदाहरण के लिए, राज्याभिषेक के समय प्रधान सड़कों पर यह रथ निकालते हुए दुर्गाजी के मन्दिर का नक्षत्र, उसके राज्य पर शासन करने वाला नक्षत्र तथा तक रथ लाना चाहिए । आनन्द गीत, नृत्य, नाटकों, उसका वर्णनक्षत्र । यदि ये नक्षत्र पापग्रहों से प्रभावित माङ्गलिक वाद्यों से रात्रि में जागरण करने का विधान हों तो उसके परिणाम भी बुरे निकलते हैं। उपयुक्त है। दूसरे दिन प्रभात काल में देवी की प्रतिमा को स्नान धार्मिक कृत्यों से नक्षत्रों के कुप्रभावों को रोका जा सकता कराकर दुर्गाजी के भक्तों को भोजन कराना चाहिए। है अथवा कम किया जा सकता है।
दुर्गाजी को पलंग, वृषभ तथा गौ का दान करना यह बात विशेष ध्यान में रखनी चाहिए कि वैखानस- चाहिए। गृह्यसूत्र, ४.१४; विष्णुधर्म०, २.१६६; नारद, १.५६, नवमी के व्रत-दे० कृत्यकल्पतरु, २७३-३०८; हेमाद्रि, ३५८-५९ तथा वराहमिहिर की योगयात्रा, ९.१-२ आदि १.८८७-९६२; कालनिर्णय २२९-२३०; तिथितत्त्व, ५९में इस बात में मतभेद है कि जन्म से कौन-कौन से नक्षत्र १०३; पुरुषार्थचिन्तामणि, १३९, १४२; व्रतराज, उपर्युक्त नामों को धारण करेंगे।
३१९-३५२ । अष्टमीविद्धा नवमी को प्राथमिकता देनी नवनाथ-नाथ सम्प्रदाय के अन्तर्गत आरम्भकालिक नौ चाहिए । तिथितत्त्व, ५९ तथा धर्मसिन्धु, १५ के अनुसार नाथ मुख्य कहे गये हैं। ये हैं गोरक्षनाथ, ज्वालेन्द्रनाथ, चैत्र शुक्ल नवमी को समस्त योगिनियों में से भद्रकाली कारिननाथ, गहिनीनाथ, चर्पटनाथ, रेवणनाथ, नागनाथ, को राजमुकुट पहनाया गया था। इसलिए सभी नवमियों भर्तनाथ ( भर्तृहरि ) और गोपीचन्द्रनाथ ।
को दुर्गाजी के भक्त को उपवास करके उनकी पूजा नवनीत-वैदिक ग्रन्थों में नवनीत शब्द प्रायः उद्धत हआ करनी चाहिए। है । ऐतरेय ब्राह्मण ( १.३ ) के अनुसार यह मक्खन का नवरत्न-वल्लभाचार्य द्वारा रचित एक ग्रन्थ । इसकी वह प्रकार है जो आन्तरिक पवित्रताकारक होता है, गणना शुद्धाद्वैत सम्प्रदाय के आधारभूत ग्रन्थों में की जबकि देवता 'आज्य' को, मनुष्य 'घृत' को तथा पितरजन जाती है । 'आयुत' को पसन्द करते हैं। तैत्तिरीय संहिता ( २.३, नवरात्र-शारदीय आश्विन शुक्ल प्रतिपदा से नवमी तक १०,१) में इसका घृत तथा सपि नाम से भेद बताया और वासन्तिक चैत्र शुक्ल प्रतिपदा से नवमी तक का गया है।
समय 'नवरात्र' ( नौ रात ) कहलाता है। इसमें देवी के नवनीतगणपति-गणपति के उपासकों का एक वर्ग । 'शङ्कर- प्रीत्यर्थ उनकी स्तुति, पूजा, व्रत आदि किये जाते हैं । शार
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