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नरसिंहाष्टमी-नलनैषध
को महात्माओं की वाणियों ने सुधारा और सँवारा । राम इन्हीं से अपने बालपन में रामायण की कथा सुनी थी, और कृष्ण, विट्ठल और पाण्डुरंग के गुणगान के माध्यम से जिसका प्रणयन स्वयं उन्होंने प्रौढावस्था में किया । इन भाषाओं की शब्दशक्ति अत्यन्त बढ़ गयी और विमर्श नरहरि-माण्डूक्योपनिषद् के एक भाष्यकार । की अभिव्यक्ति पर वक्ता का अच्छा अधिकार हो गया। नरहरिदास-दे० 'नरहरि'। धीरे-धीरे संस्कृत का स्थान प्रादेशिक भाषाओं ने लिया। नरहरि मालु-महाराष्ट्रीय भक्ति सम्प्रदाय के एक प्रसिद्ध विक्रम की पन्द्रहवीं शताब्दी में नरसी ( नरसिंह ) मेहता महात्मा । यद्यपि इनके द्वारा कहे गये तुकाराम सम्बन्धी सौराष्ट्र देश में हुए, जिन्होंने अपने भक्तिपूर्ण एवं दार्श- वृत्तान्त पर पूर्णतया विश्वास नहीं किया जा सकता, किन्तु निक पदों से गुजराती का भण्डार भरा। ये जूनागढ़ के कुछ मराठा लेखक इसका अनुसरण करते हैं । नरहरि मालु निवासी थे। इन्होंने राधाकृष्ण की प्रेमलीलाविष- 'भक्तिकथामृत' नामक ग्रन्थ के रचयिता हैं। यक तथा आत्मसमर्पण भाव की सुन्दर पदावली रची है। नरहरियानन्द-स्वामी रामानन्दजी के बारह प्रसिद्ध शिष्यों नरसिंहाष्टमी अथवा नरसिंहवत-राजा, राजकुमार अथवा में से नरहरियानन्द एक हैं । इनके बारे में 'भक्तमाल' में कोई भी व्यक्ति जो शत्रु का विनाश चाहता हो, इस व्रत बड़ी रोचक कथा उद्धृत है । एक दिन कुछ साधु-सन्तों का आचरण करे । अष्टमी के दिन वह अक्षत अथवा पुष्पों का भोजन पकाने के लिए कुल्हाड़ी लेकर ये लकड़ी जुटाने से अष्टदल कमल की रचना कर उस पर भगवान् नरसिंह चले । जब कहीं लकड़ी न मिली तो देवी के मन्दिर का की प्रतिमा विराजमान करे, तत्पश्चात् उसका पूजन करे ही एक भाग कुल्हाड़ी से काट डाला । देवी ने उनसे कहा तथा श्रीवृक्ष (बिल्व अथवा पीपल ?) की भी पूजा करे। कि यदि तुम मन्दिर को नष्ट न करो तो मैं आवश्यकतादे० हेमाद्रि, १.८७६-८८० (गरुडपुराण से)।
पूर्ति भर की लकड़ी नित्य दिया करूंगी। देवी तथा नरनरसी मेहता-दे० 'नरसिंह मेहता'।
हरियानन्द की यह घटना एक पुरुष देख रहा था। उसने नरसिंह यति-मुण्डकोपनिषद् के एक टीकाकार नरसिंह कुल्हाड़ी उठायी और वह भी देवी से नरहरियानन्द के यति भी हैं।
समान ही लकड़ी प्राप्त करने चला । ज्यों ही उसने मन्दिर
के द्वार पर कुल्हाड़ी चलायी तभी देवी ने अवतीर्ण हो उसे नरसिंहसम्प्रदाय-इस सम्प्रदाय के विषय में अधिक कुछ
आहत कर दिया। फिर जब गाँव के लोग उसे लेने आये ज्ञात नहीं है । किन्तु मध्यकाल तक नरसिंह सम्प्रदाय प्रच
तो उसे मरणासन्न पाया। देवी ने उसे फिर से जीवनदान लित रहा । विजयनगर की नरसिंह की एक प्रस्तर मूर्ति
इस शर्त पर दिया कि वह नित्य नरहरियानन्द को लकड़ी इस बात को पुष्ट करती है कि विजयनगर राज्य इस
पहुँचाया करेगा। सम्प्रदाय का पोषक था । पंजाब, कश्मीर, मुलतान क्षेत्रों
नरैना-यह दादूपन्थ का एक प्रमुख केन्द्र है। दादूपन्थी भी में यह सम्प्रदाय प्राचीन काल में प्रचलित था। आज
__ मुख्य रूप से गृहस्थ एवं संन्यासी दो भागों में विभक्त हैं। भी अनेक परिवार नरसिंह अवतार की ही पूजा-अर्चा
गृहस्थ सेवक तथा संन्यासी ही दादूपन्थी कहलाते हैं। करते हैं । 'नरसिंह उपपुराण' तेलुगु में १३०० ई० के लग
संन्यासी पाँच प्रकार के हैं--खालसा, नागा, उत्तराड़ी, भग अनुवादित हुआ था। इस सम्प्रदाय के आधारग्रन्थ
विरक्त एवं खाकी । खालसा लोगों का केन्द्रस्थान 'नरैना' निम्नांकित हैं :
है जो जयपुर से चालीस मील दूर है। (१) नृसिंहपूर्वतापनीयोपनिषद्, (२) नृसिंहउत्तरतापनी- नळ नैषध-शतपथ ब्राह्मण (२.२,२,१-२) में उद्धृत 'नळ योपनिषद्, (३) नृसिंह उपपुराण और (४) नृसिंहसंहिता। नैषध' एक मानवीय राजा का नाम प्रतीत होता है, नरसिंहस्तोत्र-यह नरसिंह सम्प्रदाय का एक पारायण जिसकी तुलना उसकी विजयों के कारण यम (मृत्यु के ग्रन्थ है।
देवता) से की गयी है। उसे दक्षिणाग्नि ( यज्ञ ) के तुल्य नरहरि-स्वामी रामानन्दजी की शिष्यपरम्परा में महात्मा माना गया है और अधिक सम्भव है कि वह दक्षिण भारत नरहरि छठी पीढ़ी में हुए थे। रामचरितमानस के प्रसिद्ध का नरेश हो, जैसा कि यम का भी दक्षिण दिशा से ही रचयिता गोस्वामी तुलसीदास के ये गुरु थे । तुलसीदास ने सम्बन्ध है।
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