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नयमणि नरबलि
की विभिन्न तिथियाँ बतायी हैं। द्राविड वेदों के रचयिता भी नम्मालवार ही हैं । नयधुमणि - विशिष्टाद्वैत सम्प्रदाय का एक प्रसिद्ध ग्रन्थ तृतीय श्रीनिवास (अठारहवीं शताब्दी का पूर्वार्ध) ने अपने ग्रन्थों में विशिष्टाद्वैत मत का समर्थन तथा अन्य मतों का खण्डन किया है। उनके रचे ग्रन्थों में 'नयमणि' भी एक है ।
नयनादेवी - अम्बाला से आगे नंगल बाँध है, उससे १२ मील पहले आनन्दपुर साहब स्थान है । वहाँ से १० मील आगे मोटरबस जाती है । फिर १२ मील पैदल पर्वतीय चढ़ाई है । यहाँ नयना देवी का स्थान पर्वत पर है । यह सिद्धपीठ माना जाता है। श्रावण शुक्ल प्रतिपदा से नवमी तक यहाँ मेला लगता है ।
नयनार - शैव भक्तों को तमिल में नयनार कहा जाता है । तमिल शैवों में गायक भक्तों का व्यक्तिवाचक नाम ही प्रसिद्ध है। ये वैष्णव आलवारों के ही समकक्ष हैं, किन्तु इनकी कुछ विशेष उपाधि नहीं है। दूसरे धार्मिक नेताओं के समान ये सामूहिक रूप से 'नयनार' कहलाते हैं। किन्तु जब इनके अलग दल का बोध कराना होता है तो ये 'प्रसिद्ध तीन' कहे जाते हैं।
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नयनाचार्य - एक वैष्णव वेदान्ती आचार्य इन्होंने वेदान्ताचार्य के 'अधिकरणसारावली' नामक ग्रन्थ की टीका लिखी थी । आचार्य वरद गुरु इनके ही शिष्य थे । नरकपूर्णिमा- प्रति पूर्णिमा अथवा मार्गशीर्ष की पूर्णिमा को बतारम्भ करना चाहिए। एक वर्ष तक इसका अनुष्ठान होता है। उस दिन व्रती उपवास, भगवान् विष्णु की पूजा तथा उनके नाम का जप करे अथवा भगवान् विष्णु के केशब से लेकर दामोदर तक बारह नामों का मार्गशीर्ष से प्रारम्भ कर वर्ष के वारहों मास तक क्रमशः जप करता रहे। प्रतिमास जलपूर्ण कलश, खड़ाऊँ, छाता तथा एक जोड़ी वस्त्रों का दान करे । वर्षान्त में इतना करने में असमर्थ हो तो केवल भगवान् का नाम ले । इससे उसको सुख प्राप्त होगा तथा मृत्यु के समय भगवान् हरि का नाम स्मरण रहेगा, जिससे सीधा स्वर्ग प्राप्त होगा। नर-नारायण - ( १ ) मनुष्य (नर) और नारायण ( ईश्वर ) की सनातन जोड़ी ( युग्म ) ही नर-नारायण नाम से
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अभिहित है । श्वेताश्वतरोपनिषद् ( ४.६ ) में दोनों सखारूप से वर्णित हैं:
द्वा सुपर्णा सयुजा सखाया समानं वृक्षं परिपप्यजाते । तयोरन्य: पिप्पलं स्वाद्वत्त्यनश्नन्नन्योऽभिचाकशीति ॥ [ दो पक्षी साथ साथ सखाभाव से एक ही विश्ववृक्ष का आश्रय लेकर रहते हैं उनमें से एक वृक्ष के फल खाता ( और भोगफल पाता ) है; दूसरा केवक साक्षी मात्र है । ] इस रूपक में परमात्मा तथा आत्मा के सायुज्य का सनातनत्व वर्णित है ।
( २ ) असमदेशीय शाक्त धर्म के इतिहास पर दृष्टिपात करने से पता चलता है कि अनेक लोगों ने इस धर्म को छोटी जातियों या समुदायों से उस समय ग्रहण किया जब असम की घाटी पश्चिम में कोच तथा पूर्व में अहोम राजाओं द्वारा शासित थी। कोन राजाओं में से एक 'नरनारायण' था जिसकी मृत्यु १६४१ वि० में ५० वर्ष के शासन के पश्चात् हुई । उसके शासन काल में कोचों की शक्ति चरम सीमा पर पहुँची थी। इसका कारण था उसका वीर भाई सिलाराम, जो उसका सेनापति था । नरनारायण स्वयं नम्र तथा अध्ययनशील प्रकृति का था तथा हिन्दू धर्म के प्रचार में बहुत योगदान करता था। अन्य राजाओं की भाँति वह भी शाक्त था तथा उसने कामाख्या देवी का मन्दिर फिर से बनवाया, जो मुसलमानों द्वारा नष्ट कर दिया गया था । उसने धार्मिक क्रियाओं के पालनार्थ बङ्गाल से ब्राह्मण बुलाये । आज भी परवतिया गुसांई ( नवद्वीप का एक ब्राह्मण ) यहाँ का प्रमुख पुजारी है। मन्दिर में नरनारायण तथा उसके भाई की दो प्रस्तर मूर्तियां वर्तमान हैं। नर-नारायण आश्रम-बदरीनाथ के मन्दिर के पीछे वाले पर्वत पर नर-नारायण नामक ऋऋषियों का आश्रम है। विश्वास है कि यहाँ नर-नारायण विश्राम ( तपस्या ) करते हैं ।
नरबलि नरबलि अथवा नरमेध मूलतः एक प्रतीक अथवा रूपक था । इस का तात्पर्य था मनुष्य के अहंकार का परमात्मा के सम्मुख पूर्ण समर्पण। जब धर्म दुरूह और विकृत हो गया और आत्मसंयम के बदले दूसरों के माध्यम से पुण्यफल पाने की परम्परा चली तो अपने अहंकार के दमन के बदले मानव दूसरे मनुष्यों और पशुओं की बलि देने लगा। मध्य युग में यह विकृति बढ़ी हुई दृष्टिगोचर
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