________________
३५०
नन्दापदद्वयव्रत-नम्नालवार
तिथिव्रत का अनुष्ठान होता है। इसमें दुर्गाजी का पूजन करना चाहिए। छ:-छ: मास के वर्ष के दो भाग करके प्रत्येक भाग में तीन दिन उपवास करते हुए दुर्गाजी के पृथक्-पृथक् नाम लेकर पृथक्-पृथक पुष्पों से पूजन करने का विधान है। इस व्रत के आचरण से व्रती स्वर्ग प्राप्त करता है और स्वर्ग से लौटकर शक्तिशाली राजा बनता है।
नम्बापदद्वयव्रत-इस व्रत में भगवती दुर्गा की पूजा स्वर्णपादुकाओं, आम्रपल्लवों, दूर्वादलों, अष्टकाओं तथा बिल्वपत्रों से करनी चाहिए । एक मास तक यह अनुष्ठान चलता है। पादुकाओं को या तो किसी दुर्गाजी के भक्त को दान में दे देना चाहिए अथवा कन्या को। इस व्रत के आचरण से भक्त समस्त पापों से मुक्त हो जाता है। नन्दावत-श्रावण मास की तृतीया, चतुर्थी, पंचमी, षष्ठी, अष्टमी, नवमी, एकादशी अथवा पूर्णिमा को व्रतारम्भ करना चाहिए । एक वर्ष तक इस व्रत का अनुष्ठान होता है । व्रती नक्त पद्धति से आहार करता रहे । बारहों महीने भिन्न-भिन्न पुष्पों, नैवेद्यों तथा भिन्न-भिन्न नामों से देवी की पूजा करनी चाहिए। जप का मन्त्र यह है 'ओम् नन्दे नन्दिनि सर्वार्थसाधिनि नमः ।' सौ बार अथवा सहस्र बार इसका जप करना चाहिए। इससे व्रती समस्त पापों से विनिर्मुक्त होकर राजपद प्राप्त करता है। नन्दासप्तमी-मार्गशीर्ष शुक्ल सप्तमी को यह व्रत प्रारम्भ होता है । यह तिथिव्रत एक वर्ष पर्यन्त चलता है। वर्ष के ४-४ मास के तीन भाग करके प्रत्येक भाग में पृथक्पृथक् पुष्प, धूप, नैवेद्यादि से भिन्न-भिन्न नाम उच्चारण कर सूर्य का पूजन करना चाहिए । पञ्चमी को एकभक्त, षष्ठी को नक्त तथा सप्तमी को उपवास करने का विधान है। नन्दिकोश्वर-एक वैयाकरण का नाम । 'मुग्धबोध' नामक व्याकरण बोपदेव द्वारा रचा गया है। बंगाल में इसका प्रचार है। इसकी बहुत-सी टीकाएँ हैं, जिनमें से चौदह के नाम मिलते हैं। 'काशीश्वर' और 'नन्दिकोश्वर' ने इस पर अपने-अपने परिशिष्ट लिखे हैं । नन्दिकीश्वर का परिशिष्ट ग्रन्थ बहुत लोकप्रिय हुआ। नन्दिकेश्वर-वीरशैव मत के एक आचार्य, जिनका प्रादुर्भाव अठारहवीं शती में हुआ। इन्होंने 'लिङ्गधारणचन्द्रिका' नामक पुस्तक बनायी, जो अर्धलिङ्गायत है। नन्दिकेश्वर उपपुराण-प्रसिद्ध उन्तीस उपपुराणों में से एक 'नन्दिकेश्वर उपपुराण' भी है। नन्दिग्राम-साकेत क्षेत्र के अन्तर्गत वैष्णव तीर्थ । अयोध्या से सोलह मील दक्षिण यह स्थान है। यहाँ श्री राम के वनवास के समय चौदह वर्ष का समय भरतजी ने तपस्या करते हए व्यतीत किया था। यहाँ भरतकूण्ड सरोवर
और भरतजी का मन्दिर है।। नन्दिनीनवमीव्रत-मार्गशीर्ष शुक्ल पक्ष की नवमी को इस
नन्दी-दिव्य (पवित्र) पशुओं में नन्दी की गणना की जाती है। नन्दी बैल शिव का वाहन है तथा धर्म के प्रतीक रूप में महत्त्वपूर्ण स्थान रखता है। शिवमन्दिरों के अन्तराल में प्रायः नन्दी की मूर्ति प्रतिष्ठित होती है। वास्तव में नन्दी (पशु) उपासक का प्रतीक है। प्रत्येक उपासक का प्रकृत्या पशुभाव होता है। पशुपति (शिव) की कृपा से ही उसके पाश (सांसारिक बन्धन) कटते हैं । अन्त में वह नन्दी (आनन्दयुक्त) भाव को प्राप्त होता है । नमः शिवाय-'पञ्चाक्षर' नामक शैव मन्त्र । लिङ्गायत मतानुसार किसी लिङ्गायत के शिशु के जन्म पर पिता-माता गुरु को बुलाते हैं। गुरु बालक के ऊपर शिवलिङ्ग बाँधता है, शरीर पर विभूति लगाता है, रुद्राक्ष की माला पहनाता है तथा उक्त रहस्यमय मन्त्र की शिक्षा देता है। शिशु इस मन्त्र का ज्ञान ग्रहण करने में स्वयं असमर्थ होता है। अतएव गुरु द्वारा यह मन्त्र केवल उसके कान में ही पढ़ा जाता है। नम्बि-आण्डार-नम्बि-ये महात्मा वैष्णवाचार्य नाथमुनि तथा चोलवंशीय राजा राजराज (१०४२-१०७५ वि०) के समकालीन थे। इन्होंने तमिल ऋचाओं (स्तुतिओं) के तीन संग्रहों को एक में संकलित कर उसका नाम तेवाराम (देवाराम) अर्थात् 'दैवी माला' रखा तथा राजराज की सहायता से इन पदों को द्राविड संगीत में स्थान दिलाया। नम्मालवार-बारह तमिल आलवारों के नाम वैष्णव भक्तों में अति प्रसिद्ध हैं। ये अपने आराध्यदेव की मूर्ति को आँखों से देखने में ही आनन्द लेते थे तथा अपने स्तुतिगान के रूप में देवमूर्ति के सामने उसे उँडेलते थे। ये स्तुतिगान करते-करते कभी आत्मविभोर हो भूमि पर भी गिर जाते थे । तिरुमङ्ग तथा नम्मालवार इनमें सबसे बड़े माने गये हैं। नम्मालवार तो अति प्रसिद्ध हैं, ये आठवीं शताब्दी या उसके आस-पास हुए थे। दूसरे विद्वानों ने नम्मालवार
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org