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नचिकेता-नदीस्तुति
नचिकेता-तैत्तिरीय ब्राह्मण (३.२.८) की प्रसिद्ध कथा में सिन्धु और भागीरथी का पूजन करना चाहिए। एक वर्ष उसे वाजश्रवस का पुत्र तथा गोतम (-गोत्रज) बताया गया तक इसका अनुष्ठान किया जाता है। प्रति मास सात दिन है। कठोपनिषद् (१.१) में नचिकेता का उल्लेख है । इस तक यह नियम अनवरत चलना चाहिए। जल में दूध उपनिषद् में उसे आरुणि औहालकि अथवा वाजश्रवस का मिलाकर समर्पण करना चाहिए तथा एक जलपात्र में पुत्र कहा गया है। कठोपनिषद् वाली नचिकेता की कथा दूध भरकर दान करना चाहिए। व्रतान्त में फाल्गुन मास में श्रेय और प्रेय के बीच श्रेय का महत्त्व स्थापित किया। में ब्राह्मण को एक पल चाँदी दान में देनी चाहिए । गया है।
दे० हेमाद्रि, २.४६२ : उद्धृत करते हुए विष्णुधर्म, नजनाचार्य-वीरशैव मत के आचार्य । इनका उद्भव काल
३.१६३, १-७ को; मत्स्यपुराण, १२१, १४०-४१; वायु१८वीं शताब्दी था। इन्होंने 'वेदसारवीरशैवचिन्तामणि'
पुराण, ४७.३८-३९ । उपर्युक्त पुराणों में गङ्गा की सात नामक ग्रन्थ की रचना की थी।
धाराओं के पूजन का विधान है। नडाडुरम्मल आचार्य-वरदाचार्य अथवा नडाडुरम्मल
(२) हेमाद्रि, ५.१.७९२ (विष्णुधर्म० से एक श्लोक आचार्य वरद गुरु के पौत्र थे। सुदर्शनाचार्य के गुरु तथा ।
__ उद्धृत करते हुए) के अनुसार सरस्वती नदी की पूजा रामानुजाचार्य के शिष्य और पौत्र जो वरदाचार्य या
करने से सात प्रकार के ज्ञान प्राप्त होते हैं। वरद गरु थे, उन्हीं के ये पौत्र थे। अतएव इनका समय नदोस्तति-दिव्य तथा पार्थिव दोनों जलों को ऋग्वेद में चौदहवीं शताब्दी कहा जा सकता है। वरदाचार्य ने अलग नहीं किया गया है । दोनों की उत्पत्ति एवं व्याप्ति 'तत्त्वसार' और 'सारार्थचतुष्टय' नामक दो ग्रन्थ रचे । एक-दूसरे में मानी गयी है। प्रसिद्ध 'नदीस्तुति' तत्वसार पद्य में है और उसमें उपनिषदों के धर्म तथा
(ऋग्वेद, १०.७५) में उत्तर प्रदेश, पंजाब और अफदार्शनिक मत का सारांश दिया गया है। सारार्थचतुष्टय गानिस्तान की नदियों का उल्लेख है । तालिका गङ्गा से विशिष्टाद्वैतवाद का ग्रन्थ है । इसमें चार अध्याय है और प्रारम्भ होती है एवं इसका अन्त सिन्ध तथा उसकी चारों में चार विषयों की आलोचना है। पहले में स्वरूप- दाहिनी ओर से मिलने वाली सहायक नदियों से होता ज्ञान, दूसरे में विरोधी ज्ञान, तीसरे में शेषत्व ज्ञान चौथे
है । सम्भवतः इस ऋचा की रचना गङ्गा-यमुना के मध्य में फलज्ञान की चर्चा है।
देश में हुई जहाँ आजकल उत्तर प्रदेश का सहारनपुर जिला नदीत्रिरात्रवत-इस व्रत का अनुष्ठान उस समय होता है है। सरस्वती तथा सिन्धु दो भिन्न नदियाँ हैं। पंजाब जब आषाढ़ के महीने में नदी में पूरी बाढ़ हो । उस की नदीप्रणाली की सबसे बड़ी नदी सिन्धु की प्रशंसा समय व्रती को चाहिए कि एक कृष्ण वर्ण के कलश में उसकी सहायक नदियों के साथ की गयी है। सिन्धु को नदी का जल भर ले और घर ले आये, दूसरे दिन प्रातः यहाँ एक राजा तथा उसकी सहायक नदियों को उसके नदी में स्नान कर उस कलश की पूजा करे। तीन दिन दोनों ओर खड़े सैनिकों के रूप में वर्णन किया गया है, जो वह उपवास करे अथवा एक दिन अथवा एक समय; एक उनको आज्ञा देता है। दीप सतत प्रज्वलित रखे, नदी का नामोच्चारण करते
ऋग्वेद की तीन ऋचाओं में अकेले सरस्वती की हए वरुण देवता का भी नाम ले तथा उन्हें अध्य, फल स्तति है, जिसे माता, नदी एवं देवी ( असुर्या ) का तथा नैवेद्य अर्पण करे, तदनन्तर भगवान् गोविन्द की
रूप दिया गया है। कुछ विद्वान् सरस्वती-ऋचाओं प्रार्थना करे । इस व्रत का आचरण तीन वर्ष तक किया
को सिन्धु सम्बन्धी बताते हैं, किन्तु यह सम्भव नहीं जाय । तदनन्तर गौ आदि का दान करने का विधान है।
है। इसे धातु कहा गया है, जिसके किनारे सेनाध्यक्ष इससे सुख, सौभाग्य तथा सन्तान की प्राप्ति होती है। निवास करते थे, जो शत्रुविनाशक (पारावतों के नदीव्रत-(१) इस व्रत को चैत्र शुक्ल में प्रारम्भ करके नक्त घातक ) थे। सरस्वती के पूजने वालों को अपराध पद्धति से सात दिन आहार करते हुए सात नदियों- की दशा में दूर देश के कारागार में जाने से छूट हदिनी (अथवा नलिनी), ह्लादिनी, पावनी, सीता, इक्ष, मिलती थी। इसके तटवर्ती ऋषियों के आश्रमों में
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