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नक्षत्रदर्श-नगरकीर्तन
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स्वास्थ्य तथा सन्तानोपलब्धि होती है। जब गुरुवार को जिनसे उनकी पूजा की जानी चाहिए। इससे प्राप्त होने रेवती नक्षत्र हो और चतुर्दशी हो अथवा अष्टमी पुष्य वाले पुण्य एवं फलों की भी चर्चा की गयी है। नक्षत्रयुक्त हो तो यह 'गुरुव्रत' होता है । व्रती को गुरुव्रत के नक्षत्रवादावली-यह अप्पय दीक्षित द्वारा रचित व्याकरणसमय कपिला गौ का दूध तथा ब्राह्मी नामक ओषधि का
ग्रन्थ है । इसे 'पाणिनितन्त्रनक्षत्रवादमाला' भी कहते हैं । रस सेवन करना चाहिए । इससे मनुष्य वाग्मी, शूर होता
यह ग्रन्थ क्रोडपत्र के समान है। इसमें सत्ताईस सन्दिग्ध है। विष्णुधर्मसूत्र ( अध्याय ९०.१-१५) उस समय के
विषयों पर विचार किया गया है ।। कृत्य बतलाता है जब मार्गशीर्ष मास से कार्तिक मास तक की पूर्णिमाओं को वही नक्षत्र हों जिनके नाम से नक्षत्रविधिवत-यह व्रत मृगशिरा नक्षत्र को प्रारम्भ होता मासारम्भ होता है । दे० दानसागर, पृ० ६२२-६२६, जहाँ
है । इसमें पार्वती के पूजन का विधान है। उनके चरणों विष्णुधर्म० को उद्धृत किया गया है।
की समानता मूल नक्षत्र से की गयी है। उनकी
गोद की रोहिणी तथा अश्विनी से, उनके घुटनों तथा अन्य नक्षत्रदर्श-यजुर्वेद में उद्धत पुरुषमेध की बलिसूची में
अवयवों की अन्य नक्षत्रों से तुलना की गयी है । प्रत्येक 'नक्षत्रदर्श' नामक एक ज्योतिषाचार्य का उल्लेख है।
नक्षत्र में व्रती की उपवास रखना चाहिए। उस नक्षत्र की शतपथब्राह्मण में इस शब्द से एक नक्षत्र के चुनाव
समाप्ति के समय व्रत की पारणा का विधान है । पृथक्करने का बोध होता है, जिसमें सुषुप्त यज्ञाग्नि को पुनः
पृथक् नक्षत्रों को पृथक्-पृथक् भोजन ब्राह्मणों को कराना जागृत किया जाता था ।
चाहिए। देवताओं को भी विभिन्न नक्षत्रों के समय नक्षत्रपुरुषव्रत-यह व्रत चैत्र मास में आरम्भ होता है। भिन्न-भिन्न नैवेद्य तथा पुष्प अर्पित किये जाने चाहिए। इसमें भगवान वासुदेव की प्रतिमा के पूजन करने का इसके फलस्वरूप व्रती सौन्दर्य तथा सौभाग्य उपलब्ध विधान है। कुछ नक्षत्र, जैसे मूल, रोहिणी, अश्विनी करता है। आदि का सम्मान करना चाहिए, जब भगवान् के चरण,
नगरकीर्तन-गाते-बजाते हए नगर में धार्मिक शोभायात्रा जंघा तथा घुटनों का क्रमशः पूजन किया जा रहा हो ।
करने को नगरकीर्तन कहा जाता है। महाप्रभु चैतन्य पर इसी प्रकार भगवान् के विग्रह के किस अङ्ग के साथ
मध्व, निम्बार्क तथा विष्णुस्वामी के मतों का बड़ा प्रभाव किस नक्षत्र का नामाल्लेख हो यह भी निश्चित किया
था । वे जयदेव, चण्डीदास, विद्यापति के गीत (भजन) गया है । व्रतान्त में भगवान् हरि की प्रतिमा को गुड़ से भरे
बड़े प्रेम से गाया करते थे। उन्होंने माध्व आचार्यों हुए कलश में विराजमान करके दान में देना चाहिए।
से भी आगे बढ़कर विचारों तथा पूजा में राधा को स्थान इसके साथ वस्त्रों से आवृत पलंग भी दान में देना
दिया। वे अधिक समय अपने अनुयायियों को साथ चाहिए। व्रती को अपनी सहधर्मिणी की दीर्घायु तथा
लेकर राधा-कृष्ण की स्तुति (कीर्तन) करने में बिताते चिरसंग के लिए भगवान् से प्रार्थना करनी चाहिए। व्रती को चाहिए कि तैल तथा लवण रहित भोजन ग्रहण करे।
थे। उसमें (कीर्तन में ) वे भक्तिभावना का ऐसा
रस मिलाते थे कि श्रोता भावविभोर हो जाते थे । प्रायः वे नक्षत्रपूजाविधि-इस व्रत में नक्षत्रों के स्वामियों के रूप कीर्तनियों की टोली के साथ बाहर सड़क पर पंक्ति बाँधे में देवगण का कटी हुई फसल से पूजन होना चाहिए। गाते हए निकल पड़ते थे तथा इस संकीर्तन को नगरअश्विनीकुमार, यम तथा अग्नि क्रमशः अश्विनी, भरणी कीर्तन का रूप देते थे । इस विधि का उनके मत के प्रसार तथा कृत्तिका नक्षत्रों के स्वामी हैं। इनके पूजन से व्रती में बड़ा योग था। आज भी अनेक भक्त मण्डलियाँ नगरदीर्घायु, स्वातन्त्र्य, दुर्घटनाजन्य मृत्यु से मुक्ति, सुख- कीर्तन करती देखी जा सकती है । दूसरे धार्मिक सम्प्रदाय समृद्धि प्राप्त करने में समर्थ होता है। दे० वायुपुराण, भी अपने सिद्धान्तों का प्रचार करने के लिए नगरकीर्तन ८०.१-३९; हेमाद्रि, २.५९४-५९७; कृत्यरत्नाकर, ५५७-। का सहारा लेते हैं। वे भजन गाते हुए नगर की सड़कों ५६० । उपर्युक्त ग्रन्थ नक्षत्रों के स्वामियों, उन पुष्पों पर निकलते हैं। आर्यसमाज जैसा सुधारवादी समाज तथा अन्यान्य सुगन्धित पदार्थों का उल्लेख करते हैं, भी नगरकीर्तन में विश्वास करता है।
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