________________
३३०
देवसमाज-देवासुरसंग्राम
को जागते हैं । वास्तव में यहाँ विष्णु सूर्य के एक रूप में पूजित होते हैं। वर्षा ऋतु में मेघाच्छन्न होने के कारण ये सोये हुए माने जाते तथा शरद् ऋतु आने पर और
आकाश स्वच्छ होने पर जागृत समझे जाते हैं। देवसमाज-आधुनिक सुधारक ईश्वरवादी आन्दोलनों में 'देवसमाज' का भी उल्लेख किया जा सकता है। इसके संस्थापक ने पहले ईश्वरवादी 'ब्राह्मसमाज' की तरह अपना संप्रदाय आरम्भ कर पीछे ईश्वरवादिता का एकदम त्याग कर दिया। यह समाज बहुत लोकप्रिय नहीं हुआ। देवस्वामी-ये बौधायन श्रौतसूत्र के एक भाष्यकार है। देवहार-उत्तर भारत में आदिम देव-देवियों की पूजा आज भी प्रचलित है। इन देवता तथा देवियों का साधारण नाम 'ग्राम या ग्राम्य देवता' है, जिसे आधुनिक भाषा में 'गांवदेवता' या 'गाँवदेवी' कहते हैं। कभी-कभी उन्हें 'दिह' कहते हैं तथा देवस्थान को 'देवहार' कहते हैं । 'देवहार' से कभी-कभी गाँव के सभी देव-देवियों का बोध होता है। लोकधर्म का य: आज भी आवश्यक अंग है। देवाचार्य-द्वैताद्वैतवादी वैष्णव संप्रदाय के आचार्य । इनका जन्म तैलङ्ग देश में हुआ था। वे सम्भवतः बारहवीं शताब्दी के अन्तिम भाग में वर्तमान थे। निम्बार्कसम्प्रदाय का विश्वास है कि वे विष्णु के हाथ में स्थित कमल के अवतार थे। उन्होंने कृपाचार्य से वेदान्त की शिक्षा ली, परन्तु कृपाचार्य कौन थे, इसका कुछ पता नहीं लगता। देवाचार्य के ग्रन्थों से मालूम होता है कि उन्होंने शाङ्करमत तथा निम्बार्कमत का विस्तृत अध्ययन किया था। देवाचार्य के दो ग्रन्थ मिलते है-'वेदान्त- जाह्नवी' तथा 'भक्तिरत्नाञ्जलि', इन ग्रन्थों में देवाचार्य ने निम्बार्क मत तथा भक्ति का प्रतिपादन और शाङ्कर मत का खण्डन किया है। उनका मत वही है जो निम्बार्क का है। देवापि आष्टिषेण-(ऋषिषेण का वंशज) इसका उल्लेख ऋग्वेद की एक ऋचा (१०.९८) तथा निरुक्त (२.१०) में हुआ है । अन्य ग्रन्थ के अनुसार देवापि तथा शन्तनु भाई थे जो कुरु राजकुमार थे। देवापि ज्येष्ठ था किन्तु उसके रोगात होने के कारण शन्तनु ने ही राज्याधिकार प्राप्त किया । फिर १२ वर्षों तक वर्षा न हुई, ब्राह्मणों ने इस अनावृष्टि का कारण बड़े भाई के होते छोटे का राज्या-
रोहण बताया और तब शन्तनु ने देवापि को राज्य दे दिया । देवापि ने इसे अस्वीकार किया तथा छोटे भाई के पुरोहित का कार्यभार ग्रहण कर वर्षा करायी। बृहद्देवता में भी यही कथा है (७.१४८), किन्तु इसमें बड़े भाई के राज्याधिकारी न होने का कारण इसका चर्मरोगी होना बताया गया है। रामायण, महाभारत तथा परवर्ती ग्रन्थ इस कथा का और भी विस्तार करते हैं। महाभारत (५. ५०-५४) के अनुसार देवापि के राज्य न पाने का कारण उसका कुष्ठरोगी होना था जबकि दूसरी कथा में उसका युवावस्था से ही संन्यासी हो जाना कारण था। महाभारत में उसे प्रतीप का पुत्र कहा गया है तथा उसके भाइयों का नाम बालीक एवं आष्टिषेण ।
ऋग्वेद की ऋचा में देवापि द्वारा शन्तनु के लिए यज्ञ करने का वर्णन है। यहाँ शन्तनु को औलान कहा गया है । यहाँ दोनों का भ्रातृत्व सम्बन्ध नहीं जान पड़ता तथा यह भी नहीं जान पड़ता कि देवापि ब्राह्मण नहीं था। कुछ विद्वानों के मतानुसार, जिनका मत निरुक्त पर आधारित है, वह क्षत्रिय था, किन्तु इस अवसर पर बृहस्पति की कृपा से वह पुरोहित के कार्य करने का अधिकारी हो सका था। देवाराम-तमिल पद्यों का संग्रह (तीन ग्रन्थों का एक में संकलन) 'तेवाराम' या 'देवाराम' कहलाता है, जिसका अर्थ है 'दैवी उपवन' । इसके संकलनकर्ता का नाम था नम्बि-अण्डर-नम्बि जो वैष्णवाचार्य नाथमुनि तथा चोलनरेश रामराज (९८५-१०१८) के समकालीन थे। रामराज की सहायता से नम्बि ने 'देवाराम' के पद्यों को द्रविड गीतों में परिवर्तित कर दिया। देवासुरसंग्राम-(१) देवता और असुर दोनों प्रजापति की सन्तान है । उन लोगों का आपस में युद्ध हुआ। देवता लोग हार गये । असुरों ने सोचा कि निश्चय ही यह पृथ्वी हमारी है। उन सब लोगों ने सलाह की हम लोग पृथ्वी को आपस में बाँट लें और उसके द्वारा अपना निर्वाह करें। उन लोगों ने वृषचर्म (मानदण्ड, नपना) लेकर पूर्वपश्चिम नापकर बाँटना शुरू किया। देवताओं ने जब सूना तो उन्होंने परामर्श किया और बोले कि असुर लोग पृथ्वी बाँट रहे हैं, हम भी उस स्थान पर पहुँचें। यदि हम लोग पृथ्वी का भाग नहीं पाते हैं तो हमारी क्या दशा होगी? देवताओं ने विष्णु को आगे किया और जाकर
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org