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धाना-धूप
किसी ब्राह्मण को अर्पित किया जाता है ( इसीलिए है। ऋग्वेद के दशम मण्डल, ११२.९ तथा १५५.१ इसका नाम धान्यसंक्रान्ति है)। प्रतिमास इस व्रत की के मन्त्रों द्वारा उबले हुए तिल तथा तंडुलों से होम करना आवृत्ति होनी चाहिए।
चाहिए। धाना-इसका प्रयोग बहुवचन में ही होता है। ऋग्वेद धारावत-(१) समस्त उत्तरायण काल में इस व्रत का (१.१६.२०; ३.३६, ३; ५२,५; ६.२९,४) तथा परवर्ती विधान है । इसमें दुग्धाहार विहित है। पृथ्वी की धातुवैदिक साहित्य में इसका 'अन्न के दानों' के अर्थ में प्रतिमा का दान करना चाहिए। इसके रुद्र देवता हैं। उल्लेख हुआ है । कभी-कभी वे भूने जाते थे (भृज्ज) तथा । इस व्रत के आचरण से व्रती सीधा रुद्रलोक को जाता है। नियमित रूप से सोमरस के साथ मिलाये जाते थे। कृत्यकल्पतरु के अनुसार यह संवत्सरव्रत है। हेमाद्रि घामव्रत-धाम का अर्थ है गृह । इसमें गृह का दान होता इसे फुटकर व्रतों में गिनते हैं। है इसलिए इसको धामव्रत कहते हैं। सूर्य इसका देवता है । (२) चैत्र के प्रारम्भ में ही इस व्रत का आरम्भ होता इस व्रत में फाल्गुन की पूर्णमासी को प्रारम्भ करके तीन है। इसमें भगवन्नाम के साथ जल की धारा मुंह में दिन उपवास करने का विधान है। इसके उपरान्त एक गिरायी जाती है । एक वर्ष तक इसके अनुष्ठान का सुन्दर गृह का दान देना चाहिए। इससे दानी का सूर्य- विधान है। व्रतान्त में नये जलपात्र का दान करना लोक में वास होता है।
चाहिए । इस व्रत के आचरण से व्रती पराधीनता से मुक्त धार (धारा)-मध्य प्रदेश का प्राचीन नगर और तीर्थ
होकर सुख तथा अनेक वरदान प्राप्त करता है। स्थान । यह इतिहासप्रसिद्ध भोजराज की धारा नगरी
धिषणा-सोम तैयार करने में प्रयुक्त कोई पात्र तथा स्वतः है। यहाँ बहत से प्राचीन ध्वंसावशेष पाये जाते हैं।
सूखे हुए सोम का भी पर्याय । एक उपमा द्वारा यह कहा जाता है, गुरु गोरखनाथ के शिष्य राजा गोपीचन्द की
द्विवाची शब्द दो लोक 'आकाश एवं भूमि' का वाचक राजधानी भी धारा ही थी। यहाँ जैन मन्दिर भी हैं,
है । हिलब्रण्ट के मतानुसार इसका व्यक्तिवाची अर्थ पृथ्वी, पार्श्वनाथजी की स्वर्णमति है। हिन्दू मन्दिर भी बहुत
द्विवाची अर्थ आकाश तथा पृथ्वी और त्रिवाची बहुबचन से हैं ।
में इसका अर्थ पृथ्वी, वायुमण्डल एवं आकाश है। कुछ
परिच्छेदों में इसका अर्थ 'वेदो' हैं । वाजसनेयी (७.२६) भोज परमार के समय यहाँ एक प्रसिद्ध 'सरस्वती
एवं तैत्तिरीय (३.१,१०,१) संहिताएं इसका अर्थ 'लकड़ी मन्दिर' का निर्माण हुआ था। इसका मुस्लिम आक्रमण
का चिकना पटरा' (फलक) व्यक्त करती हैं जिस पर सोम कारियों ने मस्जिद में परिवर्तन कर दिया। मन्दिर का
को कुटा जाता था (अधिषवणफलके)। पिशेल के मताअभिलेख आज भी सुरक्षित है। भोज के समय इसकी
नुसार 'धिषणा' अदिति एवं पृथ्वी की तरह धन की बड़ी ख्याति थी। उनके दिवंगत होने पर यह श्रीहीन हो गयी :
देवी है। 'अद्य धारा निराधारा निरालम्बा सरस्वती।
धो-इसका प्रयोग ऋग्वेद (१.३, ५, १३५, ५, १५१, पण्डिता खण्डिता सर्वे भोजराजे दिवं गते ।'
६,१८५; ६.२.३; ८,४०, ५) में प्रार्थना या स्तुति के धारणपारणवतोद्यापन-चातुर्मास्य की एकादशी अथवा
रूप में हुआ है । एक कवि अपने को ऐसी ही एक स्तुति वर्षा के प्रथम मास अथवा अन्तिम मास में इस व्रत का
(ऋ० २.२८,५) का बुनकर रचयिता कहता है। 'धी' आरम्भ होता है। उपवास (धारण) प्रथम मास में तथा
की भी देवता के रूप में कल्पना की गयी है। पारण (भोजन ) दूसरे मास में करने का विधान है। मनु के कहे हुए धर्म के दस लक्षणों में एक 'धी' भी भगवान् नारायण तथा लक्ष्मीजी की प्रतिमाओं को एक है। इसका सामान्य अर्थ है तर्क, बुद्धि । जलपूर्ण कलश पर विराजमान करके रात्रि के समय घोति-ऋग्वेद के अनेक परिच्छेदों में इसका प्रायः वही उनका चरणामत लेना चाहिए । पुष्प, तुलसीदलादि अर्थ है जो 'धी' (स्तुति) का है। से पूजन तथा 'ओं नमो नारायणाय' नामक मन्त्र का धूप-एक सुगन्धित काष्ठ एवं ग्रन्धद्रव्यों का मिश्रण । १०८ बार जप करना चाहिए। अर्घ्य देने का विधान पूजा के षोडशोपचारों में इसकी गणना है। देवार्चन में
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