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धैवर-नकुल
धैवर-धैवर का अर्थ मछुवा अथवा एक जाति का सदस्य का यह प्रधान चिह्न है । उपर्युक्त दोनों उद्धरणों में बाणों है (धीवर का वंशज) । धैवर का उल्लेख यजुर्वेद (वाज० के छूटने तथा ध्वज पर गिरने का वर्णन है । सं० ३०.१६; तै० ब्रा० ३.४,१५, १) के पुरुषमेध प्रकरण
(२) देवताओं के चिह्न (निशान) अर्थ में भी ध्वज का में उद्धृत बलिपशु की सूची में है।
प्रयोग होता है । प्रायः उनके वाहन ही ध्वजों पर प्रतिधौतपाप (हत्याहरण)-नैमिषारण्य क्षेत्र का एक तीर्थ ।। ष्ठित होते हैं, यथा विष्णु का गरुडध्वज, सूर्य का अरुणनैमिषारण्य-मिषरिख से एक योजन (लगभग आठ मील) ध्वज, काम का मकरध्वज आदि । पर यह तीर्थ गोमती के किनारे है। यहाँ स्नान करने से
ध्वजनवमी-पौष शुक्ल नवमी को इस व्रत का अनुष्ठान
वजनी समस्त पाप नष्ट हो जाते हैं, ऐसा पुराणों में वर्णन मिलता
किया जाता है । इस तिथि को 'सम्बरौ' कहा जाता है। है । ज्येष्ठ शुक्ल दशमी, रामनवमी तथा कार्तिकी पूर्णिमा
इसमें चण्डिका देवी का पूजन होता है जो सिंहवाहिनी को यहाँ मेला लगता है।
हैं एवं कुमारी के रूप में ध्वज को धारण करती हैं। ध्यानबदरी-उत्तराखण्ड का एक वैष्णव तीर्थ । हेलंग
मालती के पुष्प तथा अन्य उपचारों के साथ राजा को स्थान से सड़क छोड़कर बायीं ओर अलकनन्दा को पुल से
भगवती चण्डिका के मन्दिर में ध्वजारोहण करना चाहिए। पार करके एक मार्ग जाता है । इस मार्ग से छः मील जाने
इसमें कन्याओं को भोजन कराने का विधान है। स्वयं पर कल्पेश्वर मन्दिर आता है, जो 'पञ्च केदारों' में से
उपवास करने अथवा एकभक्त रहने की भी विधि है। पञ्चम केदार माना जाता है। यही 'ध्यानबदरी' का
ध्वाजवत-गरुड़, तालवृक्ष, मकर तथा हरिण भगवान् मन्दिर है । इस स्थान का नाम उरगम है।
वासूदेव, संकर्षण, प्रद्युम्न तथा अनिरुद्ध के क्रमशः ध्वजध्यानबिन्दु उपनिषद्-योगसम्बन्धित उपनिषदों में से एक
चिह्न है । उनके वस्त्र तथा ध्वजों का वर्ण क्रमशः पीत, ध्यानबिन्दु उपनिषद् भी है। यह पद्य बद्ध है तथा चूलिका
नील, श्वेत तथा रक्त है। इस व्रत में चैत्र, वैशाख, उपनिषद् की अनुगामिनी है।
ज्येष्ठ तथा आषाढ़ में प्रतिदिन क्रमशः गरुड़ आदि ध्वजध्रव-(१) सूत्र ग्रन्थों में ध्रुव से उस तारे का बोध होता
चिह्नों का उचित वर्ण के वस्त्रों तथा पुष्पों से पूजन होता है जिसका प्रयोग विवाह संस्कार में वधू को स्थिरता के
है। चौथे मास के अन्त में ब्राह्मणों का सम्मान तथा उचित प्रतीक के रूप में दर्शन कराने के लिए होता है । मैत्रायणी
रंगों से रंजित वस्त्र प्रदान किये जाते हैं। चार-चार उपनिषद् में ध्रुव का चलना (ध्रुवस्य प्रचलनम्) उद्धृत है,
मासों में इस प्रकार इस व्रत का तीन बार अनुष्ठान किन्तु इसका 'ध्रुव तारे की चाल' अर्थ न होकर किसी
किया जाता है। इसके अनुष्ठान से विभिन्न लोकों की विशेष घटना से अभिप्राय है।
प्राप्ति होती है । व्रताचरण के समय के हिसाब से व्रतकर्ता (२) पौराणिक गाथाओं में ऐतिहासिक पुरुष उत्तान- का लोकों में निवास होता है। यदि किसी व्यक्ति ने बारह पाद के पुत्र ध्रुव से इस तारे का सम्बन्ध जोड़ा गया है। वर्ष तक व्रत किया हो तो विष्णु भगवान् के साथ सायुज्य भगवान् विष्णु ने अपने भक्त ध्रुव को स्थायी ध्रुवलोक ।
मुक्ति प्राप्त होती है। विष्णुधर्म०, ३, १४६१-१४ में इसे प्रदान किया था।
चतुमूर्तिवत बतलाया है, उसी प्रकार हेमाद्रि, २. ८२९ध्रवक्षेत्र-एक तीर्थ का नाम, जो मथुरा के पास ८३१ में भी।
यमुना के तट पर स्थित 'ध्रुव टीला' कहलाता है । यहाँ निम्बार्क सम्प्रदाय की एक गुरुगद्दी है।।
नकुल-(१) नकुल (नेवला) का उल्लेख अथर्ववेद (६.१३. ध्रुवदास-राधावल्लभी वैष्णव सम्प्रदाय के एक भक्त कवि, ९.५) में सांप को दो टुकड़ों में काटने और फिर जोड़
जो १६वीं शताब्दी के अन्त में हए थे। इनके रचे अनेक देने में समर्थ जन्तु के रूप में किया गया है। इसके सर्पग्रन्थ (वाणियाँ) है, जिनमें 'जीवदशा' प्रधान है। विष निवारण के ज्ञान का भी उल्लेख है (ऋग्वेद, ८.७, ध्वज-(१) ऋग्वेद (७.८५,२:१०.१०३,११) में यह २३)। यजुर्वेदसंहिता में इस प्राणी का नाम अश्वमेधीय शब्द पताका के अर्थ में दो बार आया है। वैदिक युद्धों बलिपशुओं की तालिका में है।
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