________________
३३२
देवीभागवत-दह
बलरामपुर से १४ मील उत्तर गोंडा जिले में देवीपाटन ही वैदिक स्तवन हैं । वैदिक शाक्तजन सिद्ध करते हैं कि स्थान है। यहाँ पाटेश्वरी देवी का मन्दिर है। कहा जाता दसों उपनिषदों में दसों महाविद्याओं का ही वर्णन है । इस है कि महाराज विक्रमादित्य ने यहाँ पर देवी की स्थापना प्रकार शाक्तमत का आधार भी श्रुति ही सिद्ध होता है । की थी। यह भी कहा जाता है कि कर्ण ने परशुरामजी देवीस्तुति-प्राचीन इतिहासग्रन्थ महाभारत और रामासे यहीं ब्रह्मास्त्र प्राप्त किया था। नवरात्र के दिनों में यहाँ यण में देवी की स्तुतियाँ हैं। इसी प्रकार अद्भतरामाभारी मेला लगता है।
यण में अखिल विश्व की जननी सीताजी का परात्पर देवीभागवत-श्रीमद्भागवत और देवीभागवत के सम्बन्ध
शक्ति वाला रूप प्रत्यक्ष कराते हुए बहुत सुन्दर स्तुति में इस बात का विवाद है कि इन दोनों में महापुराण
की गयी है। कौन सा है ? विषय के महत्त्व की दृष्टि से प्रायः दोनों
देवेश्वराचार्य-संक्षेपशारीरक ग्रन्थ के रचनाकार और ही समान कोटि के प्रतीत होते हैं। श्रीमद्भागवत में
शृंगेरी मठ के अध्यक्ष सर्वज्ञात्ममुनि ने अपने गुरु का विष्णुभक्ति का उत्कर्ष है और देवीभागवत में पराशक्ति
नाम देवेश्वराचार्य लिखा है। टीकाकार मधुसुदन सरदुर्गा का उत्कर्ष दिखाया गया है। दोनों भागवतों में
स्वती एवं रामतीर्थ ने देवेश्वराचार्य का अर्थ सुरेश्वराचार्य अठारह-अठारह हजार श्लोक हैं और बारह ही स्कन्ध हैं। किया है । किन्तु इन दोनों के काल में बहुत अन्तर है। देवीभागवत के पक्ष में यही निर्बलता है कि जिन प्रमाणों से
देवोपासना-देवताओं की उपासना हिन्दू धर्म का एक उसका महापुराणत्व प्रतिपादित होता है वे वचन उप
विशिष्ट अंग है। साधारणतया प्रत्येक हिन्दू किसी न पुराणों और तन्त्रों से उद्धृत होते है। उधर श्रीमद्
किसी इष्ट देवता की उपासना अथवा पूजा करता है । भागवत के लिए महापुराण ही प्रमाण उपस्थित करते हैं।
परन्तु हिन्दू देवकल्पना ईश्वर से भिन्न नहीं होती। दे० 'देवीभागवत उपपुराण' ।
प्रत्येक देव अथवा देवता ईश्वर की किसी न किसी शक्ति देवीभागवत उपपुराण-शाक्तों का धार्मिक-अनुशासन
का प्रतीक मात्र है। इसलिए देवोपासना वास्तव में ईश्व
रोपासना ही है। देवताओं की मूर्तियाँ होती है परन्तु सम्बन्धी ग्रन्थ । कुछ विद्वानों के मतानुसार यह उपपुराण है।
देवोपासना मूर्तिपूजा नहीं है । मूर्ति तो एक माध्यम है। देवीभक्तों का कहना है कि यह उपपुराण नहीं है, अपितु
इसके द्वारा देवता का ध्यान किया जाता है। उपासना महापुराणों में इसे पाँचवाँ स्थान प्राप्त है । इसकी रचना,
की पूरी अर्हता उस समय होती है जब देवत्व की पूरी ऐसा लगता है, भागवत पुराण के पश्चात् तथा भागवतव्याख्याकार श्रीधर स्वामी ( १३४३ वि० ) के पहले
अनुभूति के साथ देवता की अर्चना की जाती है : 'देवो
भूत्वा देवं यजेत् । हुई थी।
देश-ऐतरेय ब्राह्मण के एक परिच्छेद एवं वाजसनेयी संहिता देवीमाहात्म्य--'हरिवंश' की दो स्तुतियों एवं मार्कण्डेय
में इस शब्द का प्रयोग बहाँ पाया जाता है जहाँ सरस्वती पुराण के एक खण्ड से गठित यह ग्रन्थ देवी के शक्तिशाली
की पाँच सहायक नदियों के नाम बताये गये हैं। ऋचाकार्यों का विवरण एवं उनकी दैनिकी व वार्षिकी पूजा
द्रष्टा ऋषि ने सरस्वती को मध्यदेश में स्थित बताया है । विधियों का वर्णन उपस्थित करता है। इसका अन्य नाम
मध्यदेश की भौगोलिक स्थितियाँ यजुर्वेद में दी गयी हैं । 'चण्डीमाहात्म्य' है।
मनुस्मृति में ब्रह्मावर्त, ब्रह्मर्षिदेश, मध्यदेश, आर्यावर्त देवीयामलतन्त्र-शाक्त परम्परा की वाममार्गी शाखा का एक आदि का देश रूप में निर्देश है। ग्रन्थ । कश्मीरा शद विद्वान् आभनवगुप्त एव क्षमराज धार्मिक अर्थ में यज्ञीय भमि अथवा धार्मिक क्षेत्र को ने देवीयामल तथा अन्य तन्त्रों से अपने ग्रन्थों में प्रचुर देश कहा जाता है। उद्धरण दिये हैं । ये दोनों विद्वान् ९४३ वि० के लगभग दार्शनिक अर्थ में वैशेषिक के अनुसार नव द्रव्यों में से हए थे, इसलिए देवीयामल तन्त्र इससे पहले की 'देश' एक है। इसका सामान्य अर्थ है गति अथवा प्रसार । रचना है।
देहु-महाराष्ट्र के भागवत सम्प्रदाय में विष्णु का नाम वहाँ देवीसूक्त-देव्यथर्वशीर्ष, देवीसूक्त और श्रीसूक्त शक्ति के की बोली में विट्ठल या विठोवा है। इसके मुख्य केन्द्र
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org