________________
३३६
निहित है। किन्तु वास्तव में 'बोढाणा' भक्त की प्रीति से कृष्ण का द्वारका से डाकौर चुपके से चला आना और पंडों के प्रति भक्त का ऋण चुकाना - यह भाव संनिहित है। ये दोनों मन्दिर डाकौर ( अहमदाबाद के समीप ) तथा द्वारका में हैं। दोनों में वैदिक नियमानुसार ही यजनादि किये जाते हैं ।
तीर्थयात्रा में यहाँ आकर गोपीचन्दन लगाना और चक्राङ्कित होना विशेष महत्त्व का समझा जाता है । यह आगे चलकर कृष्ण के नेतृत्व में यादवों की राजधानी हो गयी थी । यह चारों धामों में एक धाम भी है । कृष्ण के अन्तर्धान होने के पश्चात् प्राचीन द्वारकापुरी समुद्र में डूब गयी । केवल भगवान् का मन्दिर समुद्र ने नहीं डुबाया । यह नगरी सौराष्ट्र ( काठियावाड़) में पश्चिमी समुद्रतट पर स्थित है । द्वारकानाथ (१) कृष्ण का एक स्वामी' | मथुरा से पलायन करने के ने द्वारका अपनी राजधानी बनायी थी मुख्य थे अतः वे द्वारकानाथ कहलाये । द्वारकामठ शङ्कराचार्य भारतव्यापी धर्मप्रचारयात्रा करते हुए जब गुजरात आये तो द्वारका में एक मठ स्थापित कर अपने शिष्य हस्तामलकाचार्य को उसके आचार्यपद पर बैठाया | शृंगेरी तथा द्वारका मठों का शिष्यसम्प्रदाय 'भारती' के उपनाम से प्रसिद्ध है ।
पर्याय 'द्वारका के बाद वृष्णि यादवों कृष्ण वृष्णिगण के
द्वार इस शब्द का प्रयोग केवल उपमा के रूप में ऐतरेय ब्राह्मण (१.३०) में हुआ है, जहाँ विष्णु को देवों का द्वार कहा गया है। छान्दोग्य उपनिषद् (२.१३, ६) में भी ' द्वारप' का प्रयोग उपर्युक्त उपमावाचक अर्थ में हुआ है।
Jain Education International
द्वारकानाथ द्वीपव्रत अनुसार उपनयन आदि संस्कार करने से मनुष्य द्विज होता है
जन्मना जायते शूद्रः संस्काराद् द्विज उच्यते । वेदपाठाद्भवेद् विप्रः ब्रह्मज्ञानाच् च ब्राह्मणः ॥
[ मनुष्य जन्म के समय शूद्र होता है, फिर संस्कार करने से द्विज कहलाता है । वेद पढ़ने से वह विप्र और ब्रह्म का ज्ञानी होने से ब्राह्मण होता है । ] द्वितीयाभद्राव्रत - यह व्रत भद्रा या विष्टि नामक करण पर आश्रित है, यह मार्गशीर्ष शुक्ल चतुर्थी को प्रारम्भ होता है। एक वर्ष तक भद्रा देवी की पूजा करने का इसमें विधान है। इसमें निम्नांकित मन्त्र का जप होता है भद्रे भद्राय भद्रं हि चरिष्ये व्रतमेव ते । निर्विघ्नं कुरु मे देवि ! कार्यसिद्धिख भावव ॥ व्रती को भद्रा करण के आरम्भ में भद्रा देवी की लोहमयी, पाषाणमयी, काष्ठमयी अथवा रागरञ्जित प्रतिमा स्थापित कर पूजनी चाहिए। इसके परिणामस्वरूप मनुष्य की मनोभिलाषाएँ तथा करणीय कर्म उस समय भी पूर्ण होते हैं, जब कि वे भद्रा काल में आरम्भ किये गये हों। भद्रा अथवा विष्टि को अधिकांश अवसरों पर एक भयानक वस्तु के रूप में देखा अथवा समझा जाता है । दे० स्मृतिकौस्तुभ ५६५-५६६ दिल कार्तिक मास में दो बलों वाले धान्य भोजन के लिए निषिद्ध हैं, जैसे अरहर (तूर), राजिका, माष ( उड़द), मुद्ग, मसूर, चना तथा कुलित्थ इनका भोजन में परित्याग 'दिल' कहलाता है। दे० निर्णयसिन्धु १०४१०५॥
द्विराषाढ - विष्णु भगवान् आषाढ शुक्ल एकादशी को शयन करते हैं यह प्रसिद्ध है। जब सूर्य मिथुन राशि पर हों और अधिक मास के रूप में उस समय दो आषाढ़ हों तब विष्णु द्वितीय आषाढ के अन्त वाली एकादशी के उपरान्त ही शयन करेंगे। दे० जीमूतवाहन का कालविवेक, १६९१७३ निर्णयसिन्धु १९२ समयमख ८३ ॥ द्वीपप्रत चैत्र शुक्ल से आरम्भ कर प्रत्येक मास में सात दिन व्रती को सप्त द्वीपों का क्रमशः पूजन करना चाहिए । क्रम यह होगा - ( १ ) जम्बू, (२) शाक, (३) कुश, (४) क्रौञ्च, (५) शाल्मलि, (६) गोमेद और (७) पुष्कर । यह व्रत एक वर्ष तक आचरणीय है। व्रती को एक शाम भूमि पर शयन करना चाहिए। विश्वास किया जाता है
द्विज - (१) प्रथम तीन वर्णों का एक विरुद 'डिज' ( द्विजन्मा) है, किन्तु यह शब्द विशेष कर ब्राह्मणों के लिए प्रयुक्त हुआ है । अथर्ववेद ( १९.७१, १ ) के एक अस्पष्ट वर्णन को छोड़कर इसका प्रयोग वैदिक साहित्य में नहीं हुआ है। धर्मसूत्र और स्मृतियों में इसका प्रचुर प्रयोग हुआ है। इसका शाब्दिक अर्थ है 'दो जन्म वाला' अर्थात् ऐसा व्यक्ति जिसके दो जन्म होते हैं: (१) शारीरिक और (२) ज्ञानमय शारीरिक जन्म माता-पिता से होता है। और ज्ञानमय जन्म गुरु अथवा आचार्य से । स्मृतियों के
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org