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धनुर्वेद-धरणीव्रत
तदनन्तर यावक तथा घृतमिश्रित खाद्य ग्रहण करना धनुष्कोटि-सेतुबन्ध रामेश्वरम् क्षेत्र का एक तीर्थ । होता है। इसी प्रकार का आचरण कृष्ण पक्ष में भी धनुष्कोटि के लिए रेल जाती है। यहाँ मीठे जल का करना चाहिए । चैत्र से आठ मास तक इसका अनुष्ठान अभाव है, छाया भी नहीं है। यहाँ से जहाज चार घंटे होना चाहिए । व्रतान्त में अग्नि देव की सुवर्ण की प्रतिमा में लङ्का पहुँच जाते हैं। रेल के डब्बे जहाज पर चढ़ा का दान किया जाता है । इस व्रत से दुर्भाग्यशाली व्यक्ति दिये जाते हैं, जो उधर उतार लिये जाते हैं। इस अन्तभी सुखी, धन-धान्यादि से समृद्ध तथा पापमुक्त हो जाता है। रीप का एक सिरा बंगाल की खाड़ी तथा दूसरा सिरा धनुर्वेद-मधुसूदन सरस्वती ने अपने ग्रन्थ 'प्रस्थानभेद' में महोदधि कहलाता है। यहां यात्री स्नान, श्राद्ध, पिण्डलिखा है कि यजुर्वेद का उपवेद धनुर्वेद है, इसमें चार पाद दान तथा स्वर्ण के बने धनुष का दान भी करते हैं। यहाँ हैं, यह विश्वामित्र का बनाया हुआ है । पहला दीक्षा पाद ३६ बार स्नान करने को विधि है। हाथ में बाल का है, दूसरा संग्रह पाद है, तीसरा सिद्ध पाद है और चौथा। पिण्ड, कुश लेकर कृत्या नामक दानवी से समुद्रस्नान की प्रयोग पाद। पहले पाद में धनुष का लक्षण और अनुमति मांगी जाती है । बालू का पिण्ड समुद्र में डालकर अधिकारी का निरूपण है । जान पड़ता है कि यहाँ धनुष स्नान किया जाता है। शब्द का अभिप्राय चारों प्रकार के आयुधों से है, क्योंकि धन्वन्तरि-ये विष्णु के २४ अवतारों में हैं और समुद्रआगे चलकर आयुध चार प्रकार के कहे गये हैं : (१) मंथन के समय अमृतकुम्भ लेकर उत्पन्न हुए थे। धन्वमुक्त, (२) अमुक्त, (३) मुक्तामुक्त, (४) यन्त्रमुक्त । मुक्त आयुध चक्रादि हैं। अमुक्त खड्गादि हैं । मुक्तामुक्त लिखा है कि ब्रह्मा ने पहले-पहल एक लाख श्लोकों का शल्य और उस तरह के अन्य हथियार हैं। यन्त्रमुक्त आयुर्वेद शास्त्र प्रकाशित किया था, जिसमें एक सहस्र बाण आदि हैं । मुक्त को अस्त्र कहते हैं और अमुक्त को अध्याय थे। उनसे प्रजापति ने पढ़ा। प्रजापति से अश्विनीशस्त्र । ब्राह्म, वैष्णव, पाशुपत, प्राजापत्य और आग्नेय कुमारों ने पढ़ा, अश्विनीकुमारों से इन्द्र ने पढ़ा और आदि भेद से नाना प्रकार के आयध है। साधिदैवत और इन्द्रदेव से धन्वन्तरि ने पढ़ा । धन्वन्तरि से सुनकर सश्रत समन्त्र चतुर्विध आयुधों पर जिनका अधिकार है वे क्षत्रिय- मुनि ने आयुर्वेद की रचना की। काशी पुरी में धन्वन्तरि कुमार होते हैं और उनके अनुवर्ती जो चार प्रकार के नामक एक राजा भी हुए हैं, जिन्होंने आयुर्वेद का अच्छा होते हैं वे पदाति, रथी, गजारोही और अश्वारोही हैं। प्रचार किया था। इन सब बातों के अतिरिक्त दीक्षा, अभिषेक, शकून और धन्वी-एक बृत्तिकार का नाम । सामवेद की राणायनीय मङ्गल आदि सभी का प्रथम पाद में वर्णन किया गया है। शाखा से सम्बन्धित द्राह्यायण श्रौतसूत्र अथवा वसिष्ठ___आचार्य का लक्षण और सब तरह के अस्त्र-शस्त्रादि
सूत्र पर मध्व स्वामी ने भाष्य रचा है । रुद्रस्कन्द स्वामी के विषय का संग्रह द्वितीय पाद में दिखाया गया है।
ने इस भाष्य का 'औद्गात्रसारसंग्रह' नाम के निबन्ध तीसरे पाद में गुरु और विशेष-विशेष साम्प्रदायिक शस्त्र, में संस्कार किया है। धन्वी ने इस पर छान्दोग्यसूत्रदीप उनका अभ्यास, मन्त्र, देवता और सिद्धिकरणादि वणित
नामका वृत्ति लिखी है। हैं । चौथे पाद में देवार्चना, अभ्यासादि और सिद्ध अस्त्र
धरणीधरतीर्थ-यह वैष्णव तीर्थ है और अलीगढ़ से २२ शस्त्रादि के प्रयोगों का निरूपण है।
मील तथा मथुरा से १८ मील मध्य में अवस्थित है। धनुष-ऋग्वेद में इसका उल्लेख अनेक बार हुआ है। इसका वर्तमान नाम वेसवाँ है। कहा जाता है कि यह वैदिक कालीन भारतीयों का यह प्रमुख आयुध रहा है। पृथ्वी का नाभिस्थल है । महर्षि विश्वामित्र ने यहाँ यज्ञ दाह क्रिया में अन्तिम कार्य मृतक के दायें हाथ से धनुष किया था। सुना जाता है कि धरणीधरकुण्ड की खुदाई को हटाया जाना होता था।
के समय बहुत-सी शालग्राम शिलाएँ निकली थीं जिससे धनुषतीर्थ-श्रीनगर (गढ़वाल) में जिस स्थान पर अलक- अवश्य ही यह प्राचीन तीर्थस्थल सिद्ध होता है। नन्दा धनुषाकार हो गयी है वह धनुषतीर्थ कहा जाता धरणीवत-कार्तिक शुक्ल एकादशी को उपवास करके इस है । यहाँ स्नान करना पुण्यकारक है ।
व्रत का प्रारम्भ किया जाता है। इसमें भगवान् नारायण
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