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वर्णा (धरना)-धर्म
का पूजन होता है । मूर्ति के सम्मुख चार कलश स्थापित [श्रुति, स्मृति, सदाचार और अपने आत्मा का सन्तोष होते हैं जो महासागरों के प्रतीक माने गये हैं । कलशों के यही साक्षात् धर्म के चार लक्षण (पहचान, कसौटी) केन्द्र में नारायण की प्रतिमा स्थापित करनी चाहिए। कहे गये हैं। ] प्राचीन भारतीय इन चारों को धर्मानुकूल रात्रि में जागरण करना चाहिए। इस व्रत का आचरण मार्ग का निदर्शक मानते हैं। इनमें से प्रथम दो किसी न प्रजापति, अनेक राजा गण तथा पृथ्वी देवी ने किया था, किसी रूपान्तर से सभी धर्मों में प्रमाण माने जाते हैं । शेष इसीलिए इस व्रत का नाम धरणीव्रत पड़ा।
दो, सदाचार और आत्मतुष्टि को सारा सभ्य संसार धर्णा ( धरना)-अनशन पूर्वक किसी उद्देश्य का आग्रह प्रमाण मानता है, परन्तु अपनी परिस्थिति के अनुकूल । करना । किसी राजाज्ञा के विरोध में अथवा किसी महान् भारतीय लोकवर्ग में भी जहाँ श्रुति-स्मृति से विरोध रहा उद्देश्य की सिद्धि के लिए लोग 'धर्णा' करते थे। जब है, जैसा चार्वाक सरीखे नास्तिक आचार्यों की प्रवृत्ति से कोई ब्राह्मण धर्णा के फलस्वरूप मर जाता था तो वह प्रकट है, वहाँ जैनों की तरह अपनी-अपनी श्रुति और ब्रह्मराक्षस (भूतों की एक योनि) होता था और उसकी स्मृति का प्रमाण ग्रहण होता रहा है, उसमें केवल सदायज्ञादि से पूजा की जाती थी। ऐसा ही एक ब्रह्म ससराम ___चार और आत्मतुष्टि मूल में रहे हैं। के निकट चयनपुर में है, नाम है 'हर्ष ब्रह्म' या हर्ष बाबा। स्मृतियों में धर्मोपदेश का साधारण क्रम यह है कि कहा जाता है कि ये कनौजिया ब्राह्मण थे और सालिवाहन पहले साधारण धर्म वर्णन किया गया है, जिसे जगत् के नामक राजा के पुरोहित थे। रानी उनको पसन्द नहीं सब मनुष्यों को निर्विवाद रूप से मानना उचित है, जिसके करती थी, उसने राजा से यह कहकर कि यह ब्राह्मण पालन से मनुष्यसमाज की रक्षा होती है। यह धर्म आपको राज्य से वंचित करना चाहता है, उसकी भूमि आस्तिक और नास्तिक दोनों पक्षों को मान्य होता है । आदि छिनवा ली। उसे राजा ने निष्कासित कर दिया। फिर समाज की स्थिति के लिए जीवन के विविध फलतः ब्राह्मण राजभवन के सामने धर्णा करके मरने के व्यापारों और अवस्थाओं के अनुसार वर्णों और आश्रमों बाद ब्रह्म हुआ। क्योंकि तपस्या करके वह मरा था, के कर्तव्यों का धर्म रूप से निर्देश किया जाता है । इसको इसलिए प्रेतयोनि में भी बहत प्रभावशाली माना विशिष्ट धर्म कहते हैं। इस विभाग में भी प्रत्येक वर्ण के जाता है।
भिन्न-भिन्न आश्रमों में प्रवेश करने और बने रहने के धर्म-किसी वस्तु की विधायक आन्तरिक वृत्ति को उसका । विधि और निषेध वाले नियम होते हैं। इन नियमों का धर्म कहते हैं । प्रत्येक पदार्थ का व्यक्तित्व जिस वृत्ति पर आरम्भ गर्भाधान संस्कार से होता है और अन्त अन्त्येष्टि निर्भर है वही उस पदार्थ का धर्म है । धर्म की कमी से तथा श्राद्धादि से माना जाता है। थोड़े-बहुत हेर-फेर के उस पदार्थ का क्षय होता है । धर्म की वृद्धि से उस पदार्थ साथ सारे भारत में इन संस्कारों के नियम निवाहे जाते की वृद्धि होती है। बेले के फल का एक धर्म सुवास है, है । संयमी जीवन संस्कारों को सम्पन्न करता है और उसकी वृद्धि उसकी कली का विकास है, उसकी कमी से संस्कार का फल होता है शरीर और जीवात्मा का फल का ह्रास है। धर्म की यह कल्पना भारत की ही उत्तरोत्तर विकास । धर्म सन्मार्ग का पहला उपदेश है, विशेषता है। वैशेषिक दर्शन ने धर्म की बड़ी सुन्दर उन्नति के लिए नियम है, संयम उस उपदेश वा नियम वैज्ञानिक परिभाषा "यतोऽभ्युदयनिःश्रेयससिद्धिः स धर्मः" । का पालन है, संस्कार उन संयमों का सामूहिक फल है इस सूत्र से की है। धर्म वह है जिससे ( इस जीवन और किसी विशेष देश-काल और निमित्त में विशेष का) अभ्युदय और ( भावी जीवन में ) निःश्रेयस की प्रकार की उन्नत अवस्था में प्रवेश करने का द्वार है। सिद्धि हो। परन्तु यह परिभाषा परिणामात्मिका है। सब संस्कारों का अन्तिम परिणाम व्यक्तित्व का विकास इसकी सामान्य परिभाषा यह है :
है। 'संयम-संस्कार-विकास" अथवा "संयम-संस्कारवेदः स्मृतिः सदाचारः स्वस्य च प्रियमात्मनः । अभ्युदय-निश्रेयस" यह धर्मानुकूल कर्त्तव्य का क्रियात्मक एतच्चतुर्विध प्राहुः साक्षाद्धर्मस्य लक्षणम् ।। रूप है । ये सभी मिलकर संस्कृति का इतिहास बनाते हैं ।
(मनु. २.१२) धर्म यदि आत्मा और अनात्मा की विधायक वृत्ति है तो
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