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२.२० ) भाष्य में शङ्कर ने इनका 'आगमविद्' कहकर उल्लेख किया है और बृहदारण्यक ( पृ० २९७, पूना सं० ) भाष्य में उनको 'सम्प्रदायविद्' कहा है । शंकर ने जहाँ भी विद्याचार्य का उल्लेख करना आवश्यक समझा वहाँ सम्मान के साथ किया है। उनके मत का खण्डन भी नहीं किया गया है । इससे प्रतीत होता है कि द्रविडाचार्य का सिद्धान्त उनके प्रतिकूल नहीं था छान्दोग्य उपनिषद् में जो 'तस्वमसि' महावाक्य का प्रसंग आया है, उसकी व्याख्या में विचार्य ने 'व्याधसंहिता' से राजपुत्र की आख्यायिका का वर्णन किया है। इस पर आनन्दगिरि कहते हैं कि "तत्त्वमस्यादिवाक्य अद्वैत का समर्थक है " यह मत आचार्य द्रविड को अङ्गीकृत है ।
रामानुज सम्प्रदाय के ग्रन्थों में भी विद्याचार्य नामक एक प्राचीन आचार्य का उल्लेख मिलता है । कुछ विद्वानों का मत है कि ये द्रविडाचार्य शङ्करोक्त द्रविडाचार्य से भिन्न थे। इन्होंने पाञ्चरात्रसिद्धान्त का अवलम्बन करके विभाषा में ग्रन्थ रचना की थी। यामुनाचार्य के 'सिद्धि त्रय' में इन्हीं आचार्य के विषय में यह कहा गया है कि "भगवता बादरायणेन इदमर्थमेव सूत्राणि प्रणीतानि, विवृतानि च ....... भाष्यकृता ।" यहाँ पर 'भाष्यकृत्' शब्द से द्रविडाचार्य का ही उल्लेख है। किसी किसी का मत है कि द्रविडसंहिताकार आलवार शठकोप अथवा वकुलाभरण भी वैश्यव प्रत्यों में विवार्य नाम से प्रसिद्ध हैं। इन दोनों 'द्रविडों' की परस्पर भिन्नता के सम्बन्ध में अब तक कोई सिद्धान्त नहीं स्थिर हो सका है । सर्वज्ञात्ममुनि ने 'संक्षेपशारीरक' में ( ३.२२१ ) ब्रह्मनन्दिग्रन्थ के द्रविडभाग्य से जिन वचनों को उत किया है, वे रामानुज द्वारा उद्धृत द्रविडभाष्यवचनों से अभिन्न दीख पड़ते हैं । इसीलिए किसी-किसी के मत से शर सम्प्रदाय में प्रसिद्ध द्रविडाचार्य और रामानुज सम्प्र दाय में प्रसिद्ध द्रविडाचार्य एक ही व्यक्ति हैं, भिन्न नहीं । द्राक्षाभक्षण - द्राक्षाओं (अंगूर) का आश्विन मास में पहलेपहल सेवन द्राक्षाभक्षण उत्सव कहलाता है । कृत्यरत्नाकर ( पृ० ३०३ ३०४) पुराण को उद्धृत करते हुए कहता ब्रह्मपुराण है कि जिस समय समुद्रमन्थन हुआ उस समय क्षीरसागर से एक सुन्दरी कन्या प्रकट हुई, किन्तु शीघ्र ही वह लता में परिवर्तित हो गयी। उस समय देवगण पूछने लगे कि अरे, यह कौन है ? हम लोग प्रसन्नतापूर्वक इसे देखेंगे
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द्राक्षाभक्षण-द्र पद
( हन्त ! द्रक्ष्यामहे वयम् ) और उसी समय उन्होंने लता को 'द्राक्षा' नाम से सम्बोधित किया। यही इस शब्द की प्रसिद्ध व्युत्पत्ति है जब अंगूर परिपक्व हों उस समय पुष्पों, सुगन्धित द्रव्यों तथा खाद्य पदार्थों से लता का पूजन करना चाहिए। पूजनोपरान्त दो बालक तथा दो वृद्ध पुरुषों का सम्मान किया जाना चाहिए। अन्त मे नृत्य तथा गान का अनुष्ठान विहित है । ड्रामिड-वेदान्तसूत्रों पर इनका भाष्य था दे० 'द्रविडा चार्य' ।
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द्राविडभाव्य शिवज्ञानयोगी द्वारा रचित द्राविडभाष्य एक बृहद् ग्रन्थ है, जो तमिल भाषा में है और 'शिवज्ञानबोध' पर लिखा गया है । इस ग्रन्थ को 'द्राविडमहाभाष्य' भी कहते हैं ।
द्राविड बंद-नम्मालवार के ग्रन्थ वेदों के प्रतिनिधि माने जाते हैं । इनकी सूची निम्नांकित है : (१) तिरुविरुत्तम ऋग्वेद
(२) तिरुवोयमोलि सामवेद (३) तिरुवाशिरियम यजुर्वेद (४) पेरियतिस्वन्यादि अथर्ववेद
उपर्युक्त चारों ग्रन्थ 'द्राविड वेद' कहे जाते है। ब्रह्मायणीत सूत्र सामवेदीय चार श्रौतसूत्रों में से तीसरा लाट्यायनश्रौतसूत्र से इसका भेद बहुत थोड़ा है । यह सूत्र सामवेद की राणायनीय शाखा से सम्बन्ध रखता है। इसका दूसरा नाम 'वसिष्ठसूत्र' हे मध्य स्वामी ने इसका भाष्य लिखा है। रुद्रस्कन्द स्वामी ने 'ओगावसारसंग्रह' नामक निवन्ध में उस भाष्य का और परिष्कार किया है। धन्वी ने इस पर छान्दोग्यसुत्रदीप नाम की वृत्ति लिखी है । द्र – यह एक काष्ठपात्र का नाम है, जिसका उपयोग विशेष कर सोमयज्ञों (०९.१,२,६५,६.९८, २) में होता था। तैत्तिरीयब्राह्मण में इसका प्रयोग केवल 'काष्ठ' के अर्थ में हुआ है।
पद - ( १ ) काष्ठस्तम्भ अथवा स्तम्भ मात्र के अर्थ में ऋक् ( १.२४, १३:४,३२,२३) तथा परवर्ती ग्रन्थों में (अ० ० ६.६३,५:११५,२;१९.४७,९ वा०सं० २०.२०) बहुधा यह प्रयुक्त है । इस प्रकार यज्ञयूपों (स्तम्भों ) को भी द्रुपद कहते थे। शुनःशेष ऐसे ही तीन दुपदों से बाँधा गया या कुछ उदाहरणों में चोरों को दण्ड देने के लिए ऐसे ही स्तम्भों में बाँध दिया जाता था ।
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