________________
देव्यान्वोलन-देवीपाटन
कहा कि हम लोगों को भी पृथ्वी का अधिकार प्रदान करो। रूपों का वर्णन पाया जाता है। देवी, महादेवी, पार्वतो, असूयावश असुरों ने उत्तर दिया कि जितने परिमाण के हैमवती आदि इसके साधारण नाम हैं। शिव की शक्ति स्थान में विष्णु व्याप सके उतना ही हम देंगे। विष्ण के रूप में देवी के दो रूप हैं-(१) कोमल और ( २) वामन थे। देवताओं ने इस बात को स्वीकार किया। भयङ्कर । प्रायः दूसरे रूप में ही इसकी अधिक पूजा होती वे आपस में विवाद करने लगे कि असुरों ने हम लोगों है । कोमल अथवा सौम्य रूप में वह उमा, गौरी, पार्वती, को यज्ञ भर के लिए ही स्थान दिया है। फिर देवताओं ने हैमवती, जगन्माता, भवानी आदि नामों से सम्बोधित विष्णु को पूर्व की ओर रखकर अनुष्टुप् छन्द से परिव्रत किया होती है। भयङ्कर रूप में इसके नाम हैं-दुर्गा, काली, तथा बोले, तुमको दक्षिण दिशा में गायत्री छन्द से, पश्चिम श्यामा, चण्डी, चण्डिका, भैरवी आदि । उग्र रूप की दिशा में त्रिष्टुप् छन्द से और उत्तर दिशा में जगती छन्द पूजा में ही दुर्गा और भैरवी की उपासना होती है, से परिवेष्टित करते हैं। इस तरह उनको चारों ओर जिसमें पशुबलि तथा अनेक वामाचार की क्रियाओं का छन्दों से परिवेष्टित करके उन्होंने अग्नि को सन्मुख रखा।। विधान है। दुर्गा के दस हाथ हैं, जिनमें वह शस्त्रास्त्र छन्दों के द्वारा विष्णु दिशाओं को घेरने लगे और देव- धारण करती है। वह परमसुन्दरी, स्वर्णवर्ण और सिंहगण पूर्व दिशा से लेकर पूजा और श्रम करते-करते आगे वाहिनी है। वह महामाया रूप से सम्पूर्ण विश्व को चलने लगे। इस तरह उन्होंने समस्त पथ्वी प्राप्त कर ली। मोहित रखती है। चण्डीमाहात्म्य के अनुसार इसके
(२) देवासुर संग्राम क्रमशः अब नैतिक प्रतीक बन निम्नाङ्कित नाम है-१. दुर्गा २. दशभुजा ३. सिंहगया है । सत्य-असत्य अथवा न्याय-अन्याय के संघर्ष को वाहिनी ४. महिषमर्दिनी ५. जगद्धात्री ६. काली ७. भी देवासुर संग्राम कहा जाता है ।
मुक्तकेशी ८. तारा ९. छिन्नमस्तका १०. जगद्गौरी । देव्यान्दोलन-(देवी को झलाना) यह व्रत चैत्र शुक्ल तृतीया
अपने पति शिव से देवी को अनेक नाम मिले हैं, जैसे को किया जाता है। उमा तथा शङ्कर की प्रतिमाओं को
बाभ्रवी, भगवती, ईशानी, ईश्वरी, कालञ्जरी, कपालिनी, केसर आदि सुगन्धित वस्तुओं से चचित करके तथा
कौशिकी, महेश्वरी, मृडा, मृडानी, रुद्राणी, शर्वाणी, शिवा, दमनक पादप से विशेष रूप से पूजित करके झूले में
त्र्यम्बकी आदि। अपने उत्पत्तिस्थानों से भी देवी को झुलाना तथा रात्रि में जागरण करना चाहिए।
नाम मिले हैं, यथा कुजा (पृथ्वी से उत्पन्न), दक्षजा (दक्ष देव्या रथयात्रा-पंचमी, सप्तमी, नवमी, एकादशी अथवा
से उत्पन्न)। अन्य भी अनेक नाम हैं-कन्या, कुमारी, तृतीया तिथि को इस व्रत का अनुष्ठान होता है। राजा
अम्बिका, अवरा, अनन्ता, नित्या, आर्या, विजया, ऋद्धि, लोग ईंटों या पाषाणों का एक ढाँचा अथवा मन्दिर
सती, दक्षिणा, पिङ्गा, कर्बुरी, भ्रामरी, कोटरी, कर्णमुक्ता, आदि बनाकर उसमें देवी की प्रतिमा पधराते थे। फिर
पद्मलांछना, सर्वमङ्गला, शाकम्भरी, शिवदूती, सिंहस्था । सुवर्णसूत्रों, हाथोदाँतों तथा घण्टियों की बन्दनवार से
तपस्या करने के कारण इसका नाम अपर्णा तथा कात्यासजे हुए रथ के मध्य भाग में मूर्ति को स्थापित कर अपने
यनी है। उसे भूतनायकी, गणनायकी तथा कामाक्षी या प्रासाद की ओर शोभायात्रा के रूप में ले जाते थे।
कामाख्या भी कहते हैं। उसके भयङ्कर रूप के और भी सम्पूर्ण नगर, मकान, दरवाजे, सुन्दर प्रकार से सजाये
अनेक नाम है-भद्रकाली, भीमादेवी, चामुण्डा, महाजाते थे। रात्रि को दीप प्रज्वलित किये जाते थे। इस
काली, महामारी, महासुरी, मातङ्गी, राजसी, रक्तदन्ती प्रकार के आचरण से सुख, वैभव, ऋद्धि, सिद्धि तथा
आदि । दे० 'दुर्गा' तथा 'चण्डी' । सन्तति का लाभ होता है, ऐसा लोग विश्वास करते थे। देवी उपनिषद्--एक शाक्त उपनिषद् । यह अथर्वशिरस् देवी-'देव' शब्द का स्त्रीलिङ्ग 'देवी' है। देवताओं की उपनिषद् के पाँच भागों में से अन्तिम है। तरह अनेक देवियों की सत्ता मानी गयी है । शाक्तमत का देवी उपपुराण-उन्तीस उपपुराणों में से पचीसवाँ स्थान प्रचार होने पर शक्ति के अनेक रूपों की अभिव्यक्ति देवियों देवी उपपुराण का है। इस पुराण में शक्ति का माहात्म्य के रूपों में प्रचलित होती चली गयी।
दर्शाया गया है। महाभारत और पुराणों में देवी के विविध नामों और देवीपाटन-~-यह एक शाक्त तीर्थ है । पूर्वी उत्तर प्रदेश में
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org