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देवयात्रोत्सव-देवशयनोत्थान
देवयात्रोत्सव-दे० नीलमत पुराण, पृ० ८३-८४, पद्य १०१३-१०१७ । देवालयों में कुछ निश्चित तिथियों को जाना चाहिए। जैसे विनायक के मन्दिर में चतुर्थी को, स्कन्द के मन्दिर में षष्ठी को, सूर्य के मन्दिर में सप्तमी को, दुर्गाजी के मन्दिर में नवमी को, लक्ष्मीजी के मन्दिर में पञ्चमी को, शिवजी के मन्दिर में अष्टमी को अथवा चतुर्दशी को, नागों के मन्दिर में पञ्चमी, द्वादशी अथवा पूर्णिमा को । पूर्णिमा को समस्त देवों के मन्दिरों में यात्रोत्सव मनाये जा सकते हैं। राजनीतिप्रकाश, पृ० ४१६-४१९ ( ब्रह्मपुराण से उद्धत ) के अनुसार देवालयों में वैशाख मास से प्रारम्भ कर छः मास तक प्रतिवर्ष ये उत्सव किये जाने चाहिए, यथा प्रथम मास में ब्रह्माजी के लिए, द्वितीय में देवताओं के लिए तथा तृतीय में गणेशजी के लिए । इसी प्रकार अन्यान्यों के लिए भी जानना चाहिए। देवयान-वैदिक साहित्य के अनुसार इस शब्द का अर्थ 'देवत्व का पथ दिखाने वाला मार्ग' है। इसका अन्य शाब्दिक अर्थ है 'किसी देवता का वाहन ।' जैसे देवयान देवताओं का पथ दिखलाता है उसी प्रकार पितृयान पितरों का पथ दिखलाता है। ऋग्वेद की एक ऋचा में देवयान का सम्बन्ध अग्नि से जोड़ा गया है जो देवी पुरोहित है तथा देवता और मनुष्यों के मिलन का माध्यम है। देवों के पथ या जिस पथ से यज्ञ पदार्थ आकाश को पहुँचता था, आगे चलकर वह यज्ञकर्ता का मार्ग बन जाता था, जिस पर चलकर वह देवों के लोक में पहुँचता था। यह विचार शव के दाहकर्म से लिया गया जान पड़ता है। आगे चलकर उपनिषदों में तथा अन्य साम्प्रदायिक मतों में देवयान के अनेक स्थल या विरामस्थान निर्णीत किये गये, जिन पर क्रमशः अग्रसर होता हुआ मनुष्य अन्त में मोक्ष प्राप्त करता है। ___ कुलालिकाम्नायतन्त्र के अनुसार शाक्तों के तीन यान हैं :
दक्षिणे देवयानन्तु पितृयानन्तु उत्तरे ।
मध्यमे तु महायानं शिवसंज्ञा प्रगीयते ।। इसके अनुसार देवयान का प्रचार दक्षिण में, पितृयान का उत्तर में और महायान का मध्यदेश में प्रतीत होता है। देवव्रत-(१) चतुर्दशी के दिन गुरुवार हो तथा मघा नक्षत्र हो तो व्रती को उपवास रखते हुए भगवान् महेश्वर
का पूजन करना चाहिए। इससे दीर्घायु, धन और यश की वृद्धि होती है।।
(२) आठ दिनों तक नक्त, दो वस्त्र सहित एक गौ, सुवर्ण के चक्र तथा त्रिशूल का दान करना चाहिए। उस समय यह मन्त्र उच्चरित होना चाहिए : "शिवकेशवौ प्रसीदेताम् ।" यह संवत्सरव्रत है। इसके आचरण से घोर पापों का नाश हो जाता है।
(३) इस व्रत में वेदों का पूजन भी बताया गया है। ऋग्वेद ( इसका आत्रेय गोत्र और अधिपति चन्द्रमा है ), यजुर्वेद ( इसका काश्यप गोत्र है और देवता रुद्र है ), सामवेद ( भारद्वाज गोत्र है, देवता इन्द्र है ) का पूजन करना चाहिए। साथ ही अथर्ववेद का भी पूजन करना चाहिए। उनकी आकृतियों का भी निर्माण करना चाहिए। दे० हेमाद्रि, २.९१५-१६ ( देवीपुराण से ) । देवराजाचार्य-एक विशिष्टाद्वैतवादी आचार्य, जो विक्रम की लगभग तेरहवीं शताब्दी में हए थे । सुदर्शनाचार्य के गरु और वरदाचार्य के ये पिता थे। इन्होंने 'बिम्बतत्त्वप्रकाशिका' नामक एक प्रबन्ध में अद्वैतवादियों के प्रतिबिम्बवाद का खण्डन किया है । यह पुस्तक अभी प्रकाशित नहीं हुई है। देवल-(१) काठकसंहिता (१२.११) में देवल नामक एक ऋषि का उल्लेख है। इस नाम के एक प्राचीन वेदान्ताचार्य भी थे।
(२) देवल एक स्मतिकार भी हए हैं, जिनके नाम से देवलस्मृति प्रसिद्ध है। यह स्मृति आठवीं शती में लिखी गयी थी। देवल(तीर्थ)-उत्तर प्रदेश के पीलीभीत नगर से २३ मील पर बीसलपर बस्ती है। यहाँ से १० मील पूर्वोत्तर गढ़गजना तथा देवल के प्राचीन खंडहर हैं। इन खंडहरों से वराह भगवान् की एक प्राचीन मूर्ति मिली है जो देवल के मन्दिर में स्थापित है। स्थानीय किंवदन्ती के अनुसार महर्षि देवल का आश्रम यहीं था। देवल ऋषि-दे० 'देवल'। देवलस्मृति-दे० 'देवल' ।। देवशयनोत्थानमहोत्सव-जिस दिन भगवान विष्ण सोते है अथवा जागते हैं उस दिन विशेष व्रत और महोत्सव करने का विधान है । आषाढ़ शुक्ल एकादशी (हरिशयनी) को विष्णु सोते और कार्तिक शुक्ल एकादशी (देवोत्थान)
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