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दर्वात्रिरात्रव्रत-देव
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दुर्वात्रिरात्रव्रत-(१) यह व्रत विशेष कर महिलाओं के दृशान भार्गव-भृगु का एक वंशज । इसका उल्लेख काठक लिए है। भाद्र शक्ल त्रयोदशी को इसका आरम्भ होता संहिता (१६.८) में एक ऋषि के रूप में हआ है। है। इसमें पूर्णिमा तक तीनों दिन उपवास करना चाहिए। दुषद्वती-एक नदी का नाम, जो आधुनिक हरियाणा में कुछ उमा तथा महेश्वर की प्रतिमाओं का पूजन होता है । धर्म दूर तक सरस्वती के समानान्तर बहती हुई सरस्वती में तथा सावित्री को दूर्वा के मध्य में विराजमान करके मिल जाती है। भरत राजकुमारों के कार्यक्षेत्र के वर्णन उनका पूजन करना चाहिए। नृत्य, गानादि मांगलिक ___ में दृषद्वती का वर्णन सरस्वती एवं आपया के साथ हुआ कार्य करते हुए रात्रि में जागरण और सावित्री के आख्यान है। पञ्चविंशब्राह्मण तथा परवर्ती ग्रन्थों में दृषद्वती एवं का पाठ करना चाहिए। प्रतिपदा को तिल, घी तथा सरस्वती का तट यज्ञों के विशेष स्थल के रूप में वर्णित समिधाओं से होम करने का विधान है। इससे सौख्य, है। मनु ने मध्यदेश की पश्चिमी सीमा इन्हीं दो नदियों समृद्धि तथा सन्तान की प्राप्ति होती है । कहा जाता है कि को बतलाया है । दषद्वती और सरस्वती के बीच का प्रदेश दूर्वा का आविर्भाव भगवान् विष्णु के केशों से हुआ है मनु के अनुसार 'ब्रह्मावर्त' कहलाता था । दे० तथा कुछ अमृतबिन्दु इस पर गिर पड़े थे। दूर्वा अमरत्व 'ब्रह्मावर्त' । का प्रतीक है।
दृष्टिसृष्टिवाद-अद्वैतवेदान्तियों का एक सिद्धान्त 'विवर्त(२) इसके अन्य प्रकारों में देवी के रूप में दूर्वा का ही वाद' है, जिसके अनुसार ब्रह्म नित्य और वास्तविक सत्ता पूजन बताया गया है । दुर्वा के पूजन में फूल, फल आदि है तथा नामरूपात्मक जगत् उसका विवर्त है । इसी मत का प्रयोग किया जाता है । दो मन्त्र बोले जाते हैं, जिनमें को और स्पष्ट करने के लिए 'दृष्टिसृष्टिवाद' का सिद्धान्त एक यह है : 'हे दूर्वे ! तू अमर है, तेरी देव तथा असुर उपस्थित किया गया है, जिसके अनुसार माया अर्थात् प्रतिष्ठा करते हैं, मुझे सौभाग्य, सन्तान तथा सुख प्रदान नाम-रूप मन की वृत्ति है । इसकी सृष्टि मन ही करता है कर।' ब्राह्मणों, मित्रों तथा सम्बन्धियों को पृथ्वी पर गिरे और मन ही देखता है । ये नाम-रूप उसी प्रकार मन हुए तिलों तथा गेहूँ के आटे का बना पक्वान्न खिलाना ___ अथवा वृत्तियों के बाहर की कोई वस्तु नहीं हैं, जिस चाहिए। यदि भाद्रपद मास की अष्टमी को ज्येष्ठा या प्रकार जड़ चित्त के बाहर की कोई वस्तु नहीं है । इन मल नक्षत्र हो तो यह व्रत नहीं करना चाहिए और न सर्य वृत्तियों का शमन ही मोक्ष है। के कन्या राशि पर स्थित होने और न अगस्त्योदय हो देव-यह हिन्दू धर्म का एक महत्त्वपूर्ण तत्त्व है । इसमें एक चुकने पर।
उच्चतम कल्पना निहित है। इसकी व्युत्पत्ति यास्क के दूलनवास-सतनामी सम्प्रदाय के एक सन्त-महात्मा। इस निरुक्त के अनुसार 'दान, दीपन, द्योतन, धु-स्थान में होने' सम्प्रदाय का आरम्भ कब और किसके द्वारा हआ यह तो आदि के अर्थ पर है । इस प्रकार 'देव' शब्द विश्व की ठीक ज्ञात नहीं है, किन्तु सतनामियों और औरंगजेब के प्रकाशमय और कल्याणकारी शक्तियों का प्रतीक है । बीच की लड़ाई में हजारों सतनामी मारे गये थे। इससे वास्तव में यह विश्व के मूल में रहने वाली अव्यक्त मल प्रतीत होता है कि यह मत यथेष्ट प्रचलित था और सत्ता के विविध व्यक्त रूपों का प्रतीक है। वेदों में ईश्वस्थानविशेष में इसने सैनिक रूप धारण कर लिया था। रीय शक्ति के विभिन्न रूपों की कल्पना 'देव' के रूप में सं० १८०० के लगभग जगजीवन साहब ने इसका पुनरु- की गयी है। वेद की स्पष्ट उक्ति है "एक सद् विप्रा बहुधा द्वार किया। इनके शिष्य दुलनदास हए जो कवि भी थे। वदन्ति, अग्नि यमं मातरिश्वानमाहुः ।" [ सत्ता एक है। ये जीवनभर रायबरेली में निवास करते रहे।
विद्वान् लोग उसको विविध प्रकार से अग्नि, यम, मातदृढस्यु (आगस्ति)-(अगस्त्य के वंशज) इनका उल्लेख रिश्वा आदि देवताओं के रूप में कहते हैं। ] जैमिनीय ब्राह्मण (३.२३३) में विभिन्दुकीयों के यज्ञकार्य
पुरुषसूक्त के १७ वें मन्त्र "अद्भ्यः संभृतः ..." काल के उद्गाता पुरोहित के रूप में हुआ है।
तन्मय॑स्य देवत्वमाजानमग्रे" के अनुसार परमेश्वर ने दुभीक-ऋग्वेद (२.१४.३) में एक मनुष्य अथवा दैत्य का मनुष्यशरीर आदि को रचा है, अत : मनुष्य भी दिव्य कर्म नाम, जिसका इन्द्र ने वध किया था।
करके देव कहलाते हैं और जब ईश्वर की उपासना से
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