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दुर्गानवमी-दूर्वागणपतिव्रत एवं कला का इससे बड़ा कोई सार्वजनिक दृश्य नहीं एक बार ये स्वयं भगवान् विष्णु के शाप से पीड़ित उपस्थित किया जा सकता है।
हुए थे। दुर्गानवमी-आश्विन शुक्ल नवमी को यह व्रत प्रारम्भ दुर्वासा आश्रम-प्रयाग में त्रिवेणीसंगम से गङ्गा पार होकर होकर एक वर्ष तक चलता है । इसमें पुष्प, धूप, दीप, गङ्गा किनारे पर लगभग छ: मील चलने पर छतनगा नैवेद्य से दुर्गा का पूजन होता है । चार-चार मासों के तीन (शङ्खमाधव) से चार मील दूर ककरा ग्राम पड़ता है। भाग करके प्रत्येक में भिन्न-भिन्न नामों से दुर्गा का यहाँ दुर्वासा मुनि का मन्दिर है। श्रावण में मेला पूजन किया जाता है, जैसे आश्विन में दुर्गा (जिसे लगता है। मङ्गल्या तथा चण्डिका भी कहा जाता है) के नाम से ।
उकामा कहा जाता ह) का नाम सो दुर्वासा उपपुराण-उपपुराणों में एक 'दुर्वासा उपपुराण' __ इस व्रत का एक और प्रकार यह है कि किसी भी भी है। नवमी को व्रतारम्भ हो सकता है। क्योंकि इसी दिन दर्वासातन्त्र-मिश्रित तन्त्रों में से यह एक तन्त्र ग्रन्थ है। भद्रकाली को समस्त योगिनियों की अध्यक्ष बनाया दुर्वासाधाम-मऊ-शाहगंज (जौनपुर) लाइन पर खुरासो गया था।
रोड स्टेशन से तीन मील दक्षिण गोमती के तट पर यह दुर्गापूजा-यह भारत का प्रसिद्ध व्रतोत्सव है। बंगाल में स्थान है। कहा जाता है कि यहाँ महर्षि दुर्वासा ने इसका विशेष रूप से प्रचार है। आश्विन शुक्ल नवमी तपस्या की थी । यहाँ पर दुर्वासा का एक बड़ा मन्दिर तथा दशमी को दुर्गा का विविध प्रकार से विधिवत् पूजन है। कार्तिक पूर्णिमा को यहाँ मेला लगता है। होता है । दे० दुर्गानवमी।
दुल्हाराम-रामसनेही सम्प्रदाय के तीसरे गुरु । इन्होंने दुर्गावत-श्रावण शुक्ल अष्टमी को यह व्रत प्रारम्भ होता
लगभग १०००० छन्द तथा ४००० दोहों की रचना की है । एक वर्ष तक चलता है। प्रति मास देवी के भिन्न
थी। इस सम्प्रदाय में इनकी रचना बहुत लोकप्रिय है । भिन्न नामों से उनका पूजन किया जाता है। व्रती को
दूत-संवादवाहक के रूप में इस का उल्लेख ऋग्वेद तथा चाहिए कि वह भिन्न-भिन्न स्थानों की रज अपने शरीर
परवर्ती साहित्य में अनेक स्थानों पर हुआ है। दूत के पर मर्दन करे । नैवेद्य भी विभिन्न प्रकार का अर्पण
कर्तव्यों और धर्मों का उल्लेख अर्थशास्त्र, धर्मशास्त्र, करना चाहिए । कृत्यकल्पतरु (२२५-२३२) में इसे दुर्गा
रामायण एवं महाभारत आदि ग्रन्थों में हुआ है । दूत के ष्टमी के नाम से कहा गया है।
कुछ विशेषाधिकार सर्वमान्य थे। वह अवध्य था और दुर्गाष्टमी-दे० 'दुर्गावत' ।
उसका वध करने से पाप होता था। दुर्गोत्सव-दे० 'दुर्गापूजा'।
दूर्वा-(१) एक प्रकार की माङ्गलिक घास, जिसकी दुःखान्त-पाशुपत शैवों के पाँच मुख्य तत्त्व है-(१) पति
गणना पूजा की शुभ सामग्रियों में है। यह गणपतिपूजन (कारण), (२) पशु (कार्य), (३) योगाभ्यास, (४) विधि (विभिन्न आवश्यक अभ्यास) और (५) दुःखान्त (दुःख
(२) भाद्र शुक्ल अष्टमी को दूर्वा अष्टमी नाम से से मुक्ति) । पाशुपत सम्प्रदाय में यह मोक्ष का समानार्थी
पुकारा जाता है। शब्द है।
- दूर्वागणपतिव्रत- श्रावण अथवा कार्तिक मास की चतुर्थी दुर्वासा-पौराणिक साहित्य के ये प्रमुख चरित्रनायक हैं। को प्रारम्भ कर दो या तीन वर्ष तक इस व्रत का
अत्यन्त क्रोध और शाप देने की प्रवृत्ति के लिए ये प्रसिद्ध अनुष्ठान होता है। गणेशजी की मूर्ति का लाल फूलों, हैं। दुर्वासा का शाब्दिक अर्थ है 'वह व्यक्ति जो । बिल्वपत्रों, अपामार्ग, शमी के पल्लव, दूर्वा तथा तुलसीक्रोध में आकर अपने वासस् (कपड़े) आदि फाड़ दे। दलों से तथा अन्यान्य उपचारों से पूजन होता है। ऐसे इनकी अनेक कहानियाँ पुराणों में पायी जाती हैं। अभि- मन्त्रों का उच्चारण किया जाता है जिनमें गणेशजी के ज्ञानशाकुन्तल में दुर्वासा का शाप प्रसिद्ध है। आतिथ्य दस नामों का उल्लेख हो। ( सौरपुराण में शिवजी में त्रुटि हो जाने के कारण इन्होंने शकुन्तला को शाप स्कन्द से कहते है कि इस व्रत का आचरण पार्वती ने दिया था कि उसका पति दुष्यन्त उसको भूल जायेगा। किया था ।)
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