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दाम-वात्म्यमुनि
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भागों में विभाजित किया जाता है। दर्भों से भगवती उमा तथा महेश्वर की प्रतिमाएं बनाकर पुष्प, नैवेय, धूप से प्रतिमास भिन्न-भिन्न नामों से उनका पूजन किया जाता है । वर्ष के अन्त में किसी ब्राह्मण को सपत्नीक भोजन कराकर रक्त वस्त्र तथा सोने की बनी हुई दो गायें दक्षिणा में दी जाती हैं। इससे व्रती पुत्र तथा विद्या प्राप्त करता हुआ शिवलोक को जाता है और मोक्ष की कामना हो तो वह भी प्राप्त होता है। बाम रस्सी अथवा पेटी जिसका उल्लेख ऋग्वेद तथा परवर्ती साहित्य में हुआ है। इसका प्रारम्भिक अर्थ बन्धन ही है। ऋग्वेद (१.१६२.८) में इसका प्रयोग अश्वमेध के घोड़े को बाँधने वाली रस्सी के अर्थ में हुआ है। साथ ही बछड़े को बाँधने के अर्थ में भी इस शब्द का प्रयोग (ऋ० २.२८.७) पाया जाता है । दामोदर - कृष्ण का एक पर्याय । कृष्ण बड़े नटखट थे । यशोदा ने एक बार उनके उदर (पेट) को दाम (रस्सी) से बांधकर ऊतल में लगा दिया था, जिससे वे बाहर न भाग जायँ । तब से वे दामोदर नाम से प्रसिद्ध हो गये । दामोदरदास - राधावल्लभ सम्प्रदाय के एक भक्तकवि, जो सत्रहवीं शती के उत्तरार्ध में हो गये हैं । इनकी 'सेवकवानी' तथा अन्य रचनाएँ प्रसिद्ध हैं । इनका उपनाम 'सेवकजी' था।
दामोदर मिश्र - इनका उद्भव ग्यारहवीं शती में हुआ था । ये रामभक्त थे। इन्होंने 'हनुमन्नाटक' नामक एक नाटक लिखा जो संस्कृत के राम साहित्य में बहुत प्रसिद्ध है । दामोदराचार्य - तैत्तिरीयोपनिषद् पर लिखे गये 'आनन्दभाष्य' (आनन्दतीर्थ विरचित) पर दामोदराचार्य ने एक वृत्ति लिखी है । छान्दोग्य एवं केनोपनिषद् पर भी इनकी टीकाएं और वृत्तियाँ हैं। मुण्डकोपनिषद् पर भी इनकी रची टीका या भाष्य था ऐसा कहा जाता है। दाय - ऋग्वेद (१०.११४.१०) में दाय का प्रयोग श्रमपारितोषिक के अर्थ में हुआ है, किन्तु आगे चलकर इसका अर्थ उत्तराधिकार हो गया । अर्थात् पिता की सम्पत्ति पुत्रों में उसके जीवनकाल या मरने पर विभाजित होगी और उस पर पुत्रों का उत्तराधिकार होगा । तैत्तिरीय संहिता में कहा गया है कि मनु ने अपनी सम्पत्ति पुत्रों को बाँट दी । ऐतरेय ब्राह्मण (५.१४) में कहा गया है कि मनु की सम्पत्ति उसके जीवन काल में ही पुत्रों ने बाँट ली
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तथा बूढ़े पिता को नाभानेदिष्ठ पर छोड़ दिया । जैमिनीय ब्राह्मण (२,१५६) में कहा गया है कि पिता के जीवन काल में ही चार पुत्रों ने बुढ़े अभिप्रतारित की सम्पत्ति बांट ली थी । शुनःशेप की कथा से यह प्रकट होता है कि पुत्र अपने पिता की सम्पत्ति के अधिकारी पिता के साथसाथ होते थे, जब तक कि वे उसे बाँटने के लिए पिता को बाध्य न करें । शतपथ ब्राह्मण तथा निरुक्त के अनुसार स्त्री सम्पत्ति की उत्तराधिकारिणी नहीं होती थी। वह अपने भाइयों से पोषण पाती थी। उत्तराधिकारी दायाद कहलाता है ।
परवर्ती धर्मशास्त्र में दाय का बहुत विस्तार किया गया है । दाय के लिए उपयुक्त सामग्री क्या है ? दाय कब मिल सकता है? किसको मिल सकता है ? किस अनुपात में मिलेगा ? आदि प्रश्नों पर सविस्तार विचार हुआ है। मध्ययुग में इसके दो सम्प्रदायों का उदय हुआ - (१) मिताक्षरा सम्प्रदाय, जो याज्ञवल्क्यस्मृति के ऊपर विज्ञानेश्वर की टीका 'मिताक्षरा' पर आधारित था। यह 'जन्मनास्वत्व' सिद्धान्त को मानता था। इसके अनुसार पिता के जीवन काल में ही पुत्रों को दाय मिल सकता है; उसके जीतेजी पुत्र अपना भाग अलग करा सकते हैं । इसका प्रचार बंगाल को छोड़कर प्रायः समस्त भारत में है । (२) दायभाग सम्प्रदाय, जो जीमूतवाहन के निबन्ध ग्रन्थ 'दायभाग' के उपर आधारित है। यह 'उपरमस्वत्व' सिद्धान्त को मानता है। इसके अनुसार पिता की मृत्यु के पश्चात् ही पुत्रों को दाय मिल सकता है, उसके जीतेजी पुत्र अनीश ( अधिकाररहित) होते हैं। इसका प्रचार बंगाल में है ।
वायशतक - वेङ्कटनाथ वेदान्ताचार्य (विक्रम की चतुर्दश शताब्दी) रचित उत्तराधिकार सम्बन्धी एक ग्रन्थ । आयन्न दीक्षित के गुरु वेङ्कटेश (१८वीं शताब्दी) ने भी 'दायशतक' नामक एक ग्रन्थ लिखा है ।
दारिद्रयहर षष्ठी वर्ष भर प्रतिमास प्रत्येक षष्ठी को इस व्रत का अनुष्ठान किया जाता है। इसमें भगवान् गुह (स्कन्द ) का पूजन होता है ।
दाल्भ्य मुनि-शुक्ल यजुर्वेद के 'प्रातिशाख्य सूत्र' ( कात्यायन कृत) में यह नाम उल्लिखित है । दाल्भ्य मुनि ने आयुर्वेद - विषयक एक अन्य भी लिखा था जिसे 'दाल्भ्यसूत्र' कहते हैं।
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