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दशाश्वमेधघाट-दादू मत्स्य रूप में प्रकट हुए थे। प्रत्येक द्वादशी को व्रत करते
बोध होता है । आर्य एवं दस्यु का सबसे बड़ा अन्तर उनके हुए भाद्रपद मास तक विष्णु के दस अवतारों के, क्रमशः
धर्म में है। दस्यु यज्ञ न करने वाले, क्रियाहीन, अनेक प्रकार प्रत्येक मास में एक-एक स्वरूप के पूजन करने का की अद्भत प्रतिज्ञा वाले, देवों से घृणा करने वाले आदि विधान है।
होते थे। दासों से तुलना करते समय इनका (दस्युओं का) दशाश्वमेधघाट-गङ्गातट पर स्थित दशाश्वमेध घाट काशी कोई 'विश्' (जाति) नहीं कहा गया है । इन्द्र को 'दस्युहत्य' की धार्मिक यात्रा के पांच प्रधान स्थानों में से एक है, जहाँ प्रायः कहा गया है किन्तु 'दासहत्य' कभी भी नहीं। अत परम्परानुसार ब्रह्मा ने दस अश्वमेध यज्ञ किये थे। इस एव दोनों एक नहीं समझे जा सकते । दस्यु एक जाति थी घाट पर स्नान करने से दस अश्वमेधों का पुण्य प्राप्त होता है, जिसका बोध उनके विरुद 'अनास' से होता है । इसका अर्थ ऐसा हिन्दुओं का विश्वास है । डा० काशीप्रसाद जायसवाल निश्चित नहीं है । पदपाठ ग्रन्थ एवं सायण दोनों इसका ने यह मत प्रतिपादित किया था कि इसी घाट पर कुषाणों अर्थ (अन = आस) 'मुखरहित' लगाते हैं। किन्तु दूसरे को पराजित करने वाले नागगण भारशिवों ने भारतीय इसका अर्थ (अ = नास ) 'नासिकारहित' लगाते हैं जिसका साम्राज्य के पुनरुत्थान के प्रतीक रूप में दस अश्वमेध यज्ञों अर्थ सानुनासिक ध्वनियों के उच्चारण करने में असमर्थ का अनुष्ठान किया था। इसलिए यह स्थान 'दशाश्वमेध' हो सकता है। यदि यह 'अनास' का ठीक अर्थ है तो कहलाया। इसकी सम्पुष्टि एक वाकाटक अभिलेख से भी दस्युओं का अन्य विरुद है 'मृध्नवाच्' जो 'अनास' के साथ होती है (..."भागीरथ्यमलजलम भिषिक्तानां भार- आता है, जिसका अर्थ 'तुतलाने वाला' है। दस्यु का शिवानाम् )। दे० काशीप्रसाद जायसवाल का 'अन्धयुगीन
ईरानी भाषा में समानार्थक है 'पन्दू', 'दक्यु', जिसका अर्थ भारत' ।
एक प्रान्त है। जिमर इसका प्रारम्भिक अर्थ 'शत्रु' प्रयाग में भी गङ्गातट पर ऐसी घटना का स्मारक । लगाते हैं जबकि पारसी लोग इसका अर्थ 'शत्रुदेश', दशाश्वमेध तीर्थ है।
'विजित देश', 'प्रान्त' लगाते हैं। कुछ व्यक्तिगत दस्युओं वशोणि-यह ऋग्वेद (६.२०.४,८) के अनुसार इन्द्र का के नाम है 'चुमुरि', 'शम्बर' एवं 'शुष्ण' आदि। ऐतरेय कृपापात्र और पणियों का विरोधी जान पड़ता है। लुड्- ब्राह्मण में दस्यु से असभ्य जातियों का बोध होता है । विग के मत में यह पणियों का पुरोहित है जो असम्भव परन्तु यह बात ध्यान में रखनी चाहिए कि आर्य और दस्यु प्रतीत होता है । ऋग्वेद (१०.९६.१२) में यह सोम का का भेद प्रजातीय नहीं, किन्तु सांस्कृतिक है। विरुद प्रतीत होता है।
दात्यौह-यह शब्द यजुर्वेद में अश्वमेध के बलिपदार्थों की दशोण्य-ऋग्वेद (८५२.२) में यह एक यज्ञकर्ता का नाम तालिका में उल्लिखित है। महाभारत तथा धर्मशास्त्रों में है जो दशशिप्र और अन्य दूसरे नामों के साथ उद्धृत है। वणित शब्द 'दात्यूह' का ही यह एक रूप है। सम्भवतः यह दशोणि के समान है या नहीं यह अनिर्णीत है। यह यज्ञीय पदार्थों के समूह का द्योतक है। दशोपनिषद्भाष्य-अठारहवीं शती में आचार्य बलदेव विद्या- दादू-महात्मा दादू दयाल का जन्म सं० १६०१ वि० में भूषण ने 'दशोपनिषद्भाष्य' की रचना की। यह गौड़ीय हुआ और सं० १६६० में ये पञ्चत्व को प्राप्त हुए। ये वैष्णवों के मत के अनुसार लिखा गया है।
सारस्वत ब्राह्मण थे। ये कभी क्रोध नहीं करते थे तथा वसहरा-दे० 'दशहरा' और 'विजया दशमी' ।
सब पर दया रखते थे। इसीसे इनका नाम 'दयाल' पड़ वस्यु-ऋग्वेद में 'आर्य' और 'दस्यु' उसी तरह स्थान- गया। ये सबको दादा-दादा कहने के कारण दादू कहलाये। स्थान पर प्रयुक्त हुए है, जैसे आज 'सभ्य' और 'असभ्य', ये कबीरदास के छठी पीढ़ी के शिष्य थे। इन्होंने भी 'सज्जन' और 'दुर्जन' शब्दों का परस्पर विपरीत अर्थ में हिन्दू-मुस्लिम दोनों को मिलाने की चेष्टा की। ये बड़े प्रयोग होता है। इस शब्द की उत्पत्ति सन्देहात्मक है तथा प्रभावशाली उपदेशक थे और जीवन में ऋषितुल्य हो ऋग्वेद के अनेक स्थलों पर मानवेतर शत्रु के नाम से इसका गये थे। दादूजी के बनाये हुए 'सबद' और 'बानी' प्रसिद्ध वर्णन हुआ है। दूसरे स्थलों में दस्यु से मानवीय शत्र, हैं, जिनमें इन्होंने संसार की असारता और ईश्वर (राम)सम्भवतः आदिम स्थिति में रहने वाली असभ्य जातियों का भक्ति के उपदेश सबल छन्दों में दिये हैं। इन्होंने भजन
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