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दर्शन-दशन
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दर्शन-इस शब्द को उत्पत्ति 'दृश' (देखना) धातु से हुई दर्शन उपनिषद्-यह एक परवर्ती उपनिषद् है। है। यह अवलोकन बाहरी एवं आन्तरिक हो सकता है, दर्शनप्रकाश-यह मानभाउ साहित्य के अन्तर्गत मराठी सत्यों का निरीक्षण अथवा अन्वेषण हो सकता है, अथवा
भाषा का महत्त्वपूर्ण ग्रन्थ है। आत्मा की आन्तरिकता के सम्बन्ध में ताकिक अनुसन्धान
दशग्व-ऋग्वेद (८.१२) की एक ऋचा में एक व्यक्ति का हो सकता है । प्रायः दर्शन का अर्थ आलोचनात्मक अभि
नाम 'दशग्व' आता है, जिसकी इन्द्र ने सहायता की थी। व्यक्ति, तार्किक मापदण्ड अथवा प्रणाली होता है। यह विचारों
सम्भवतः इसका शाब्दिक अर्थ है 'यज्ञ में दस गौओं का की प्रणाली है, जिसे आभ्यन्तरिक (आत्मिक) अनुभव
दान करने वाला'। तथा तर्कपूर्ण कथनों से ग्रहण किया जाता है । दार्शनिक तौर पर 'स्वयं के आन्तरिक अनुभव को प्रमाणित करना दशन्-'दश' के ऊपर आधारित ( दाशमिक) गणना तथा उसे तर्कसंगत ढंग से प्रचारित करना' दर्शन कह- पद्धति । वैदिक भारतीयों की अंकव्यवस्था का आधार लाता है। अखिल विश्व में चेतन और अचेतन दो ही दश था। भारत में अति प्राचीन काल में भी बहुत ही पदार्थ हैं। इनके बाहरी और स्थूल भाव पर बाहर से ऊँची संख्यानामावलियाँ थीं, जबकि दूसरे देशों का ज्ञान विचार करने वाले शास्त्र को 'विज्ञान' और भीतरी तथा इस क्षेत्र में १००० से अधिक ऊँचा नहीं था। वाजसनेयी सूक्ष्म भाव पर भीतर से निर्णय करने वाले शास्त्र को संहिता में १; १०; १००; १०००; १०००० ( अयुत ); 'दर्शन' कहते हैं ।
१००००० (नियुत); १०००००० (प्रयुत); १००००भारत में बारह प्रमुख दर्शनों का उदय हआ है, इनमें ___०.० ( अर्बुद ); १०००००००० ( न्यर्बुद ); १०००से छः नास्तिक एवं छ: आस्तिक हैं। चार्वाक, माध्यमिक, ०००००० (समुद्र); १०००००००००० ( मध्य ); योगाचार, सौत्रान्तिक, वैभाषिक और आर्हत ये छः दर्शन १००००००००००० (अन्त); १०००००००००००० . नास्तिक इसलिए कहे जाते हैं कि ये वेद को प्रमाण नहीं (परार्द्ध ) की तालिका दी हुई है। काठक संहिता में मानते (नास्तिको वेदनिन्दक:)। साथ ही अनीश्वरवादी भी उपर्युक्त तालिका है, किन्तु नियत एवं प्रयत एक दूसरे कहलाने वाले सांख्य एवं मीमांसा दर्शन आस्तिक है । पूर्वोक्त का स्थान ग्रहण किये हुए है तथा न्यर्बुद के बाद 'बद' एक को नास्तिक कहने का भाव यह है कि वे ऋग्वेदादि चारों नयी संख्या आ जाती है । इस प्रकार समुद्र का मान १०वेदों का एक भी प्रमाण नहीं मानते, प्रत्युत जहाँ अवसर ०००,०००,००० और क्रमशः अन्य संख्याओं का मान भी मिलता है वहाँ वेदों की निन्दा करने में नहीं चूकते। इसी क्रम से बढ़ गया है । तैत्तिरीय संहिता में वाजसनेयी के इसीलिए नास्तिक को अवैदिक भी कहा जाता है। समान ही दो स्थानों में संख्याओं की तालिका प्राप्त है। आस्तिक दर्शन छ:-न्याय, वैशेषिक, सांख्य, योग, मैत्रायणी संहिता में अयुत, प्रयुत, फिर अयुत, अर्बुद, मीमांसा एवं वेदान्त हैं। ये वेदों को प्रमाण मानते हैं न्यर्बुद, समुद्र, मध्य, अन्त, परार्ध संख्याएँ दी हुई है। इसलिए वैदिक अथवा आस्तिक दर्शन कहलाते हैं। पञ्चविंश ब्राह्मण में वाजसनेयी संहिता वाली तालिका
निस्सन्देह ये बारहों दर्शन विचार के क्रम-विकास के न्यर्बुद तक दी गयी है, फिर निखर्वक, बद, अक्षित तथा द्योतक हैं। संक्षेप में यह कहा जा सकता है कि भारत यह तालिका १,०००,०००,०००,००० तक पहुँचती है । की पुण्यभूमि से निकले हुए जितने धर्म-मत अथवा सम्प्र- जैमिनीय उपनिषद्-ब्राह्मण में निखर्वक के स्थान में निखर्व दाय संसार में फैले हैं उन सबके मूल आधार ये ही बारह तथा बद्व के स्थान में पद्म तथा तालिका का अन्त 'अक्षिदर्शन है। व्याख्याभेद से और आचार-व्यवहार में विवि
ति व्योमान्त' में होता है। शाखायन श्रौतसूत्र न्यर्बुद धता आ जाने से सम्प्रदायों की संख्या बहुत बढ़ गयी है । के पश्चात् निखर्वाद, समुद्र, सलिल, अन्त्य, अनन्त परन्तु जो कोई निरपेक्ष भाव से इन दर्शनों का परिशीलन नामावली प्रस्तुत करता है। करता है, अधिकारी और पात्रभेद से उसके क्रमविकास किन्तु अयुत के बाद किसी भी ऊपर की संख्या का के अनुकूल आत्मज्ञान की सामग्री इनमें अवश्य मिल व्यवहार प्रायः नहीं के बराबर होता था। 'बढ' ऐतरेय जाती है।
ब्राह्मण में उद्धृत है, किन्तु यहाँ इसका कोई विशेष सांख्यिक
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