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इस व्रत का अनुष्ठान होता है । भगवान् विष्णु की पूजा का इसमें विधान है । दमनक नामक पौधे को प्रतीक बनाकर पूजा होती है । साधारणतः दमनक 'काम' का प्रतीक है, परन्तु विष्णु भी प्रवृत्तिमार्गी ( कामनाप्रधान ) देवता हैं । अतः इनका प्रतीक भी दमनक बना लिया गया है । इसमें निम्नलिखित कामगायत्री का पाठ किया जाता है
तत्पुरुषाय विद्यहे कामदेवाय धीमहि । तन्नोज्नङ्गः प्रचोदयात् ॥
दमनकारोपण - इस व्रत में चैत्र प्रतिपदा से पूर्णिमा तक दमनक पौधे से भिन्न-भिन्न देवों की पूजा का विधान है । यथा उमा, शिव तथा अग्नि प्रतिपदा के दिन, द्वितीया को ब्रह्मा तृतीया को देवी तथा शङ्कर, चतुर्थी से पूर्णिमा तक क्रमशः गणेश, नाग, स्कन्द, भास्कर, मातृदेवता, महिषमदिन, धर्म, ऋषि, विष्णु, काम, शिव और सभी सहित इन्द्र पूजित होते हैं । दमनकोत्सव - यह शैव व्रत है । चैत्र शुक्ल चदुर्दशी को इसका अनुष्ठान होता है। किसी उद्यान में दमनक पौधे की पूजा की जाती है । अशोक वृक्ष के मूल में शिव की स्तुति की जाती है । दे० ईशानगुरुदेवपद्धति, २२वीं पटल । इसमें एक लम्बा आख्यान है जब कामदेव ने शिव पर अपना बाण छोड़ना चाहा तब उनके तृतीय नेत्र से भैरव नाम की अग्नि निकली । शिवजी ने उसका नाम दमनक रखा । किन्तु पार्वती ने उसे पृथ्वी पर एक पौधा हो जाने का वरदान दे दिया । तदनन्तर शिवजी ने उसे वरदान दिया कि यदि लोग केवल वसन्त तथा मदन के मन्त्रों से उसकी पूजा करेंगे तो उनकी समस्त मनोवाञ्छाएं पूर्ण होंगी । इस दिन अनङ्गगायत्री का पाठ किया जाता है । दयानन्द सरस्वती—आर्यसमाज के प्रवर्तक और प्रखर सुधारवादी संन्यासी। जिस समय केशवचन्द्र सेन ब्राह्मसमाज के प्रचार में संलग्न थे लगभग उसी समय दण्डी स्वामी विरजानन्द की मथुरापुरी स्थित कुटी से प्रचण्ड अग्निशिखा के समान तपोबल से प्रज्वलित, वेदविद्यानिधान एक संन्यासी निकला, जिसने पहले-पहल संस्कृतज्ञ विद्वत्संसार को वेदार्थ और शास्त्रार्थ के लिए ललकारा। यह संन्यासी स्वामी दयानन्द सरस्वती थे ।
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विक्रम सं० १८८१ में इनका जन्म काठियावाड़ में एक दाँव औदीच्य ब्राह्मणकुल में हुआ। इनका शैशवकाल में मूलशङ्कर नाम था । ये बड़े मेधावी और होनहार थे ।
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दमनकारोपण-वर्श
ब्रह्मचर्यकाल में ही ये भारतोद्वार का व्रत लेकर घर से निकल पड़े। भारत में घूम घूमकर खूब अध्ययन किया, बहुत काल तक हिमालय में रहकर योगाभ्यास एवं घोर तपस्या की संन्यासाश्रम ग्रहण करके 'दयानन्द सरस्वती' नाम धारण किया । अन्त में सं० १९१७ में मथुरा आकर प्रज्ञाचक्षु स्वामी विरजानन्द से साङ्ग वेदाध्ययन किया । गुरुदक्षिणा में उनसे वेद प्रचार मूर्तिपूजा खण्डन आदि की प्रतिज्ञा की और उसे पूरा करने को निकल पड़े । प्रतिज्ञा तो व्याज मात्र थी, हृदय में लगन बचपन से लग रही थी । स्वामीजी ने सारे भारत में वेद-शास्त्रों के प्रचार की धूम मचा दी । ब्राह्मसमाज एवं ब्रह्मविद्यासमाज (थियोसॉफिकल सोसायटी) दोनों को परखा। किसी में वह बात न पायी जिसे वे चाहते थे । पश्चात् सं० १९३२ वि० में 'आर्यसमाज स्थापित किया। आठ वर्ष तक इसका प्रचार करते रहे । सं० १९४० वि० में दीपावली के दिन अजमेर में शरीर छोड़ा। इनके कार्यों के विवरण के लिए दे० 'आर्यसमाज' । दयाबाईचरणदासी पद के प्रवर्तक स्वामी चरणदासजी की दो शिष्याएँ थी, सहजोबाई और दयाबाई । दोनों शिष्याओं ने योग सम्बन्धी पद्य लिखे हैं । इनका समय लगभग १७वीं शती वि० का मध्य है । दयाराम - गुजराती भाषा के सबसे बड़े कवियों में से एक ( १७६२ - १८५३ ई०) । ये वल्लभसम्प्रदाय के अनुयायी थे । इनकी अधिकांश रचनाएँ कृष्णभक्ति एवं रागानुगा कृष्णलीला विषयक हैं ।
दयाशर आश्वलायनसूत्र के एक व्याख्याकार | इन्होंने साममन्त्र की वृत्ति भी लिखी है । वयाशङ्करगृह्यसूत्रप्रयोगवीप - शाङ्खायन गृह्यसूत्र की यह एक व्याख्या है ।
दर्श - 'दर्श' से सूर्य-चन्द्र के एक साथ दिखाई देने ( रहने) का बोध होता है, जो पूर्णमासी का प्रतिलोम ( अमावस्या) शब्द है । अधिकांशतया यह शब्द यौगिक रूप 'दर्श पूर्णमास' (अमावस्या पूर्णिमाकृत्य ) के रूप में प्रयुक्त होता है तथा इस दिन विशेष यज्ञकर्म आदि करने का महत्त्व है । इससे वैदिक काल में अमान्त मास प्रचलित होना संभावित होता है, किन्तु यह पूर्णतया सिद्ध नहीं है । केवल 'दर्श' शब्द प्रथम आने से यह सम्भावना की जाती है।
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