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दत्तात्रेयउपनिषद-वधि
किन्तु मानभाउ लोग उनको इस रूप में न मानकर कृष्ण
का अवतार समझते हैं। दत्तात्रय उपनिषद-एक परवर्ती उपनिषद् है, जिसका सम्बन्ध दत्तात्रेय सम्प्रदाय अथवा मानभाउ सम्प्रदाय के आरम्भ से है। दत्तात्र यजन्मव्रत-मार्गशीर्ष की पूर्णमासी को इस व्रत का अनुष्ठान होता है। महर्षि अत्रि की पत्नी अनसूया अपने पुत्र को 'दत्त' नाम से पुकारती थीं, क्योंकि भगवान् ने स्वयं को उन्हें पुत्र रूप में प्रदान कर दिया था। साथ ही वे अत्रि मनि के पुत्र थे, इसलिए संसार में दत्त-आत्रेय के नाम से वे प्रसिद्ध हुए। दे० निर्णयसिन्धु, २१०; स्मृतिकौस्तुभ, ४३०; वर्षकृत्यदीपिका, १०७-१०८ । भगवान् दत्तात्रेय के लिए महाराष्ट्र में अपूर्व भक्ति देखी जाती है। उदाहरण के लिए, इनसे सम्बद्ध तीर्थ औदुम्बर, गाङ्गापारा, नरसोबा-वाडी इत्यादि महाराष्ट्र में ही हैं। दत्तात्रेय ने राजा कार्तवीर्य को वरदान दिया था (वनपर्व, ११५. १२) दत्तात्रेय विष्णु के अवतार बतलाये जाते है, उन्होंने अलर्क को योग का उपदेश दिया था । वे सह्याद्रि की कन्दराओं और घाटियों में निवास करते थे और अवधूत नाम से विख्यात थे। तमिलनाडु के पञ्चाङ्गों से प्रतीत होता है कि दत्तात्रेयजयन्ती तमिलनाडु में भी मनायी जाती है। दत्तात्रय सम्प्रदाय-दत्तात्रेय को कृष्ण का अवतार मान
कर पूजा करने वाले एक सम्प्रदाय का उदय महाराष्ट्र प्रदेश में हुआ। इसके अनुयायी वैष्णव हैं। ये मूर्तिपूजा के विरोधी हैं । इस सम्प्रदाय को 'मानभाउ', 'दत्त सम्प्रदाय', 'महानुभाव पन्थ' तथा 'मुनिमार्ग' भी कहते हैं।
महाराष्ट्र प्रदेश, बरार के ऋद्धिपुर में इसके प्रधान महन्त का मठ है। परन्तु महाराष्ट्र में ही ये लोग लोकप्रिय न हो पाये। महाराष्ट्र के सन्तकवि एकनाथ, गिरिधर आदि ने अपनी कविताओं में इनकी निन्दा की है। सं० १८३९ में माधवराव पेशवा ने फरमान निकाला कि 'मानभाउ पन्थ पूर्णतया निन्दित है। उन्हें वर्णबाह्य समझा जाय । न तो उनका वर्णाश्रम से सम्बन्ध है और न छहों दर्शनों में स्थान है। कोई हिन्दू उनका उपदेश न सुने, नहीं तो जातिच्युत कर दिया जायगा।" समाज उन्हें भ्रष्ट कहकर तरह-तरह के दोष लगाता था। जो हो, इतना तो स्पष्ट ही है कि
यह सुधारक पन्थ वर्णाश्रम धर्म की परवाह नहीं करता था और इसका ध्येय केवल भगवद्भजन और उपासना मात्र था । यह भागवत मत की ही एक शाखा है। ये सभी सहभोजी हैं किन्तु मांस, मद्य का सेवन नहीं करते
और अपने संन्यासियों को मन्दिरों से अधिक सम्मान्य मानते हैं । दीक्षा लेकर जो इस पन्थ में प्रवेश करता है, वह पूर्ण गुरु पद का अधिकारी हो जाता है। ये अपने शवों को समाधि देते हैं । इनके मन्दिरों में एक वर्गाकार अथवा वृत्ताकार सौध होता है, वही परमात्मा का प्रतीक है। यद्यपि दत्तात्रेय को ये अपना मार्गप्रवर्तक मानते हैं तो भी प्रति युग में एक प्रवर्तक के अवतीर्ण होने का विश्वास करते हैं । इस प्रकार इनके अब तक पाँच प्रवर्तक हुए हैं और उनके अलग-अलग पाँच मन्त्र भी हैं। पाचों मन्त्र दीक्षा में दिये जाते हैं। इनके गहस्थ और संन्यासी दो ही आश्रम हैं। भगवद्गीता इनका मुख्य ग्रन्थ है। इनका विशाल साहित्य मराठी में है, परन्तु गुप्त रखने के लिए एक भिन्न लिपि में लिखा हुआ है। लीलासंवाद, लीलाचरित्र और सूत्रपाठ तथा दत्तात्रेय-उपनिषद् एवं संहिता इनके प्राचीन ग्रन्थ हैं।
विक्रम की चौदहवीं शती के आरम्भ में सन्त चक्रधर ने इस सम्प्रदाय का जीर्णोद्धार किया था। जान पड़ता है, चक्रधर ने ही इस सम्प्रदाय में वे सुधार किये जो उस समय के हिन्दू समाज और संस्कृति के विपरीत लगते थे। इस कारय यह सम्प्रदाय सनातनी हिन्दुओं की दृष्टि में गिर गया और बाद को राज्य और समाज दोनों द्वारा निन्दित माना जाने लगा। सन्त चक्रधर के बाद सन्त नागदेव भट्र हुए जो यादवराज रामचन्द्र और सन्त योगी ज्ञानेश्वर के समकालीन थे । यादवराज रामचन्द्र का समय सं० १३२८-१३६३ है। सन्त नागदेव भट्ट ने भी इस सम्प्रदाय का अच्छा प्रचार किया।
मानभाउ सम्प्रदाय वाले भूरे रङ्ग के कपड़े पहनते हैं। तुलसी की कण्ठी और कुण्डल धारण करते हैं। अपना मत गुप्त रखते है और दीक्षा के पश्चात् अधिकारी को ही उपदेश देते हैं।
प्राचीन ग्रन्थ । वधि-वैदिक साहित्य में दधि का उद्धरण अनेक बार आया है। 'शतपथ ब्राह्मण (१.८.१.७) में घृत, दधि, मस्तु का
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